रविवार, 29 नवंबर 2009

कैसे मिले धनवान पति और रूपवान पत्नी

विवाह के संदर्भ में कन्या की आकांक्षा धनवान पति और वर की कामना सुंदर पत्नी की होती है। दोनों के माता-पिता भी कुंडलियों के मिलान के साथ बहू या दामाद के बारे में सौंदर्य और धन को प्राय: केंद्र में रखते हैं। आइए जानें कि किन योगों में सुंदर पत्नी और धनवान पति प्राप्त होता है।
यदि वर की कुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो उसे सुंदर पत्नी मिलती है। यदि कन्या की कुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र में से कोई भी हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा धनवान होता है।
वर की कुंडली में सुंदर पत्नी के योग
जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होता है तथा स्वग्रही होकर सप्तम भाव में ही उपस्थित होता है तो जातक को सुंदर, आकर्षक, प्रभामंडल से युक्त एवं सौभाग्यशाली पत्नी प्राप्त होती है। जब सप्तमेश सौम्य ग्रह होकर भाग्य भाव में उपस्थित होता है तो जातक को शीलयुक्त, रमणी एवं सुंदर पत्नी प्राप्त होती है तथा विवाह के पश्चात जातक का निश्चित भाग्योदय होता है।
जब सप्तमेश एकादश भाव में उपस्थित हो तो जातक की पत्नी रूपवती, संस्कारयुक्त, मृदुभाषी व सुंदर होती है तथा विवाह के पश्चात जातक की आर्थिक आय में वृद्धि होती है या पत्नी के माध्यम से भी उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में वृषभ या तुला राशि होती है तो जातक को चतुर, मृदुभाषी, सुंदर, सुशिक्षित, संस्कारवान, तीखे नाक-नक्श वाली, गौरवर्ण, संगीत, कला आदि में दक्ष, भावुक एवं चुंबकीय आकर्षण वाली, कामकला में प्रवीण पत्नी प्राप्त होती है।
यदि जातक की जन्मकुंडली में सप्तम भाव में मिथुन या कन्या राशि उपस्थित हो तो जातक को कोमलाङ्गी, आकर्षक व्यक्तित्व वाली, सौभाग्यशाली, मृदुभाषी, सत्य बोलने वाली, नीति एवं मर्यादाओं से युक्त बात करने वाली, oंृगारप्रिय, कठिन समय में पति का साथ देने वाली तथा सदैव मुस्कुराती रहने वाली पत्नी प्राप्त होती है। उन्हें वस्त्र एवं आभूषण बहुत प्रिय होते हैं।
जिस जातक के सप्तम भाव में कर्क राशि स्थित होती है, उसे अत्यंत सुंदर, भावुक, कल्पनाप्रिय, मधुरभाषी, लंबे कद वाली, छरहरी तथा तीखे नाक-नक्श वाली, सौभाग्यशाली तथा वस्त्र एवं आभूषणों से प्रेम करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।
यदि किसी जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में कुंभ राशि स्थित हो तो ऐसे जातक की पत्नी गुणों से युक्त धार्मिक, आध्यात्मिक कार्यो में गहरी अभिरुचि रखने वाली एवं दूसरों की सेवा और सहयोग करने वाली होती है।
सप्तम भाव में धनु या मीन राशि होने पर जातक को धार्मिक, आध्यात्मिक एवं पुण्य के कार्यो में रुचि रखने वाली, सुंदर, न्याय एवं नीति से युक्त बातें करने वाली, वाक्पटु, पति के भाग्य में वृद्धि करने वाली, सत्य का आचरण करने वाली और शास्त्र एवं पुराणों का अध्ययन करने वाली पत्नी प्राप्त होती है।
वधू की कुंडली में धनवान पति के योग
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित होता है, उसे धनवान पति प्राप्त होता है।
जिस कन्या की जन्मकुंडली के लग्न में गुरु उपस्थित हो तो उसे सुंदर, धनवान, बुद्धिमान पति व श्रेष्ठ संतान मिलती है।
भाग्य भाव में या सप्तम, अष्टम और नवम भाव में शुभ ग्रह होने से ससुराल धनाढच्य एवं वैभवपूर्ण होती है।
कन्या की जन्मकुंडली में चन्द्र से सप्तम स्थान पर शुभ ग्रह बुध, गुरु, शुक्र आदि में से कोई उपस्थित हो तो उसका पति राज्य में उच्च पद प्राप्त करता है तथा उसे सुख व वैभव प्राप्त होता है।
कुंडली के लग्न में चंद्र हो तो ऐसी कन्या पति को प्रिय होती है और चंद्र व शुक्र की युति हो तो कन्या ससुराल में अपार संपत्ति एवं समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करती है।
कन्या की कुंडली में वृषभ, कन्या, तुला लग्न हो तो वह प्रशंसा पाकर पति एवं धनवान ससुराल में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।
कन्या की कुंडली में जितने अधिक शुभ ग्रह गुरु, शुक्र, बुध या चन्द्र लग्न को देखते हैं या सप्तम भाव को देखते हैं, उसे उतना धनवान एवं प्रतिष्ठित परिवार एवं पति प्राप्त होता है।
कन्या की जन्मकुंडली में लग्न एवं ग्रहों की स्थिति की गणनानुसार त्रिशांश कुंडली का निर्माण करना चाहिए तथा देखना चाहिए कि यदि कन्या का जन्म मिथुन या कन्या लग्न में हुआ है तथा लग्नेश गुरु या शुक्र के त्रिशांश में है तो उसके पति के पास अटूट संपत्ति होती है तथा कन्या सदैव ही सुंदर वस्त्र एवं आभूषण धारण करने वाली होती है।
कुंडली के सप्तम भाव में शुक्र उपस्थित होकर अपने नवांश अर्थात वृषभ या तुला के नवांश में हो तो पति धनाढच्य होता है।
सप्तम भाव में बुध होने से पति विद्वान, गुणवान, धनवान होता है, गुरु होने से दीर्घायु, राजा के संपत्ति वाला एवं गुणी तथा शुक्र या चंद्र हो तो ससुराल धनवान एवं वैभवशाली होता है।
एकादश भाव में वृष, तुला राशि हो या इस भाव में चन्द्र, बुध या शुक्र हो तो ससुराल धनाढच्य और पति सौम्य व विद्वान होता है।
हर पुरुष सुंदर पत्नी और स्त्री धनवान पति की कामना करती है। लेकिन यह तभी संभव है, जब आपकी जन्मकुंडली में सितारों का योग उत्तम हो।कुंडली पर पड़ रही ग्रहों की दृष्टि और लग्न योग ही बताते हैं कि पत्नी कितनी रूपवान और पति कितना धनवान होगा।
यदि जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में सूर्य हो तो उसकी पत्नी शिक्षित, सुशील, सुंदर एवं कार्यो में दक्ष होती है, किंतु ऐसी स्थिति में सप्तम भाव पर यदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो दाम्पत्य जीवन में कलह और सुखों का अभाव होता है।
जातक की जन्मकुंडली में स्वग्रही, उच्च या मित्र क्षेत्री चंद्र हो तो जातक का दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है तथा उसे सुंदर, सुशील, भावुक, गौरवर्ण एवं सघन केश राशि वाली रमणी पत्नी प्राप्त होती है। सप्तम भाव में क्षीण चंद्र दाम्पत्य जीवन में न्यूनता उत्पन्न करता है।
जातक की कुंडली में सप्तमेश केंद्र में उपस्थित हो तथा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि होती है, तभी जातक को गुणवान, सुंदर एवं सुशील पत्नी प्राप्त होती है।
पुरुष जातक की जन्मकुंडली के सप्तम भाव में शुभ ग्रह बुध, गुरु या शुक्र उपस्थित हो तो ऐसा जातक सौभाग्यशाली होता है तथा उसकी पत्नी सुंदर, सुशिक्षित होती है और कला, नाटच्य, संगीत, लेखन, संपादन में प्रसिद्धि प्राप्त करती है। ऐसी पत्नी सलाहकार, दयालु, धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि रखती है।
सुंदर पत्नी प्राप्ति हेतु श्लोक
पत्नी मनोरमां देहि मनोवृतानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥
दुर्गा सप्तशती
अच्छे वर की प्राप्ति के लिए श्लोक
कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देहि पतिं में कुरु ते नम:॥
श्रीमद्भागवत्
धाता दाधार पृथिवीं धाता द्यामुत सूर्यम्।
धातास्या अग्रुवे पतिं दधातु प्रतिकाम्यम्॥
पतिलाभ सूक्त

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

गणेश जी दूर करें वास्तुदोष - डॉ. श्रीकृष्ण

भगवान गणेश विघ्न विनाशक माने गए हैं। वास्तुपूजन के अवसर पर गणेश को प्रथम न्योता और पूजा जाता है। जिस घर में गणेश की पूजा होती है, वहां समृद्धि की सिद्धि होती है और लाभ भी प्राप्त होता है।

गणेश जी की स्थापना अपने भवन के द्वार के ऊपर और ईशान कोण में पूजा जा सकता है किंतु गणेश जी को कभी तुलसी नहीं चढ़ाएं। गणेश चतुर्थी पर विनायक की प्रतिमा पर सिंदूर चढ़ाने से सुख मिलता है और चमकीला पन्ना चढ़ाने पर पूजक को आरोग्य मिलता है।

अन्य वास्तुप्रयोग >>>

>> यदि भवन में द्वारवेध हो तो वहां रहने वालों में उच्चटन होता है। भवन के द्वार के सामने वृक्ष, मंदिर, स्तंभ आदि के होने पर द्वारवेध माना जाता है। ऐसे में भवन के मुख्य द्वार पर गणोशजी की बैठी हुई प्रतिमा लगानी चाहिए किंतु उसका आकार 11 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए।

>> जिस रविवार को पुष्य नक्षत्र पड़े, तब श्वेतार्क या सफेद मंदार की जड़ के गणेश की स्थापना करनी चाहिए। इसे सर्वार्थ सिद्धिकारक कहा गया है। इससे पूर्व ही गणेश को अपने यहां रिद्धि-सिद्धि सहित पदार्पण के लिए निमंत्रण दे आना चाहिए और दूसरे दिन, रवि-पुष्य योग में लाकर घर के ईशान कोण में स्थापना करनी चाहिए।

>> घर में पूजा के लिए गणेश जी की शयन या बैठी मुद्रा में हो तो अधिक उपयोगी होती है। यदि कला या अन्य शिक्षा के प्रयोजन से पूजन करना हो तो नृत्य गणेश की प्रतिमा या तस्वीर का पूजन लाभकारी है।

>> संयोग से यदि श्वेतार्क की जड़ मिल जाए तो रवि-पुष्य योग में प्रतिमा बनवाएं और पूजन कर अपने यहां लाकर विराजित करें। गणोश की प्रतिमा का मुख नैर्ऋत्य मुखी हो तो इष्टलाभ देती है, वायव्य मुखी होने पर संपदा का क्षरण, ईशान मुखी हो तो ध्यान भंग और आग्नेय मुखी होने पर आहार का संकट खड़ा कर सकती है।

>> पूजा के लिए गणेश जी की एक ही प्रतिमा हो। गणोश प्रतिमा के पास अन्य कोई गणोश प्रतिमा नहीं रखें।

>> गणेश को रोजाना दूर्वा दल अर्पित करने से इष्टलाभ की प्राप्ति होती है। दूर्वा चढ़ाकर समृद्धि की कामना से ऊं गं गणपतये नम: का पाठ लाभकारी माना जाता है। वैसे भी गणपति विघ्ननाशक तो माने ही गए हैं।

सृष्टि और संहार के अधिपति भगवान शिव - डॉ. विनोद शास्त्री

भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।

माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ: ।।

भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है। इस बार 6 मार्च को शिवरात्रि प्रदोष व अर्धरात्रि दोनों में विद्यमान रहेगी।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगोंे की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।

यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।

शिवरात्रि व्रत की पारणा चतुर्दशी में ही करनी चाहिए। जो चतुर्दशी में पारणा करता है, वह समस्त तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य शिवरात्रि का उपवास नहीं करता, वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं।

शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प अति प्रिय हैं। अत: पूजन में इनका उपयोग करें। जो इस व्रत को हमेशा करने में असमर्थ है, उन्हें इसे बारह या चौबीस वर्ष करना चाहिए। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। सप्तम भाव का कारक शुक्र शिव शक्ति के सम्मिलित प्रयास से प्रजा एवं जीव सृष्टि का कारण बनता है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।

ग्रह प्रभाव और रोग

ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उनको नुकसान पहुंचाता है। नकारात्मक ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में रखकर आप अपने भविष्य को सुखद बना सकते हैं।

वैदिक वाक्य है कि पिछले जन्म में किया हुआ पाप इस जन्म में रोग के रूप में सामने आता है। शास्त्रों में बताया है-पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण जायते अत: पाप जितना कम करेंगे, रोग उतने ही कम होंगे। अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश और वायु इन्हीं पांच तत्वों से यह नश्वर शरीर निर्मित हुआ है। यही पांच तत्व 360 की राशियों का समूह है।

इन्हीं में मेष, सिंह और धनु अग्नि तत्व, वृष, कन्या और मकर पृथ्वी तत्व, मिथुन, तुला और कुंभ वायु तत्व तथा कर्क, वृश्चिक और मीन जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालपुरुष की कुंडली में मेष का स्थान मस्तक, वृष का मुख, मिथुन का कंधे और छाती तथा कर्क का हृदय पर निवास है जबकि सिंह का उदर (पेट), कन्या का कमर, तुला का पेडू और वृश्चिक राशि का निवास लिंग प्रदेश है। धनु राशि तथा मीन का पगतल और अंगुलियों पर वास है।

इन्हीं बारह राशियों को बारह भाव के नाम से जाना जाता है। इन भावों के द्वारा क्रमश: शरीर, धन, भाई, माता, पुत्र, ऋण-रोग, पत्नी, आयु, धर्म, कर्म, आय और व्यय का चक्र मानव के जीवन में चलता रहता है। इसमें जो राशि शरीर के जिस अंग का प्रतिनिधित्व करती है, उसी राशि में बैठे ग्रहों के प्रभाव के अनुसार रोग की उत्पत्ति होती है। कुंडली में बैठे ग्रहों के अनुसार किसी भी जातक के रोग के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं।

कोई भी ग्रह जब भ्रमण करते हुए संवेदनशील राशियों के अंगों से होकर गुजरता है तो वह उन अंगों को नुकसान पहुंचाता है। जैसे आज कल सिंह राशि में शनि और मंगल चल रहे हैं तो मीन लग्न मकर और कन्या लग्न में पैदा लोगों के लिए यह समय स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता।

अब सिंह राशि कालपुरुष की कुंडली में हृदय, पेट (उदर) के क्षेत्र पर वास करती है तो इन लग्नों में पैदा लोगों को हृदयघात और पेट से संबंधित बीमारियों का खतरा बना रहेगा। इसी प्रकार कुंडली में यदि सूर्य के साथ पापग्रह शनि या राहु आदि बैठे हों तो जातक में विटामिन ए की कमी रहती है। साथ ही विटामिन सी की कमी रहती है जिससे आंखें और हड्डियों की बीमारी का भय रहता है।

चंद्र और शुक्र के साथ जब भी पाप ग्रहों का संबंध होगा तो जलीय रोग जैसे शुगर, मूत्र विकार और स्नायुमंडल जनित बीमारियां होती है। मंगल शरीर में रक्त का स्वामी है। यदि ये नीच राशिगत, शनि और अन्य पाप ग्रहों से ग्रसित हैं तो व्यक्ति को रक्तविकार और कैंसर जैसी बीमारियां होती हैं। यदि इनके साथ चंद्रमा भी हो जाए तो महिलाओं को माहवारी की समस्या रहती है जबकि बुध का कुंडली में अशुभ प्रभाव चर्मरोग देता है।

चंद्रमा का पापयुक्त होना और शुक्र का संबंध व्यसनी एवं गुप्त रोगी बनाता है। शनि का संबंध हो तो नशाखोरी की लत पड़ती है। इसलिए कुंडली में बैठे ग्रहों का विवेचन करके आप अपने शरीर को निरोगी रख सकते हैं। किंतु इसके लिए सच्चरित्रता आवश्यक है। आरंभ से ही नकारात्मक ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में रखकर आप अपने भविष्य को सुखद बना सकते हैं।

मूलांक ‘3’ वाले पहनें पीला पुखराज

अंक ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का जन्म किसी भी अंग्रेजी महीने की ३, १२, २१ या ३0 तारीख को हुआ हो तो उसका जन्म मूलांक ‘३’ माना जाता है। इस अंक के स्वामी देवगुरु बृहस्पति हैं। इस मूलांक वाले स्त्री-पुरुषों पर गुरु का प्रभाव होता है। मूलांक तीन का स्वामी गुरुसभी ग्रहों का भी गुरु है। बृहस्पति दैविक एवं आध्यात्मिक गुणों का प्रतीक है।

स्वभाव :
मूलांक ३ वाले व्यक्ति बृहस्पति ग्रह के प्रभाव से ओत-प्रोत होते हैं। यह उत्तम विचार एवं चरित्र वाले होते हैं। ये ईमानदार, परोपकारी एवं अध्ययनशील होते हैं। नम्र स्वभाव इनके व्यक्तित्व को निखारने में सहायक रहता है। बृहस्पति की स्थिति में कुछ कमी के कारण कभी-कभी इनका एक और स्वरूप भी दिखाई पड़ता है। इनकी मधुर वाणी में झूठ की मात्रा अधिक होती है तथा ये विलासी और बड़े गुरुघंटाल सिद्ध होते हैं।

स्वास्थ्य :
जीवन शक्ति उत्तम होती है। यदि ये बीमार भी हो जाएं तो शीघ्र स्वस्थ हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को स्वास्थ्य, नाड़ी विकार, गला, चर्म, वात, शुगर, नेत्र विकार तथा स्त्रियों को गर्भ एवं गुप्त रोग, पथरी, कमर दर्द तथा हृदय रोग की आशंका रहती है। फरवरी, सितंबर व दिसंबर में स्वास्थ्य बिगड़ने की आशंका होती है।

व्यवसाय एवं कार्यरुचि :
मूलांक ३ वाले व्यक्ति अनुशासित, अध्ययनशील, बुद्धिमान और मृदुभाषी होते हैं। ये उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। प्रचार-प्रसार तथा लेखन में विशेष सफलता मिलती है। ये वकील, जज, राजदूत, मंत्री, चिकित्सक तथा सफल प्रशासनिक अधिकारी होते हैं। ये अध्यापक, डिजाइनर, अभिनेता तथा ज्योतिषी भी होते हैं।

आर्थिक स्थिति :
महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अधिक धन खर्च करते हैं। कभी-कभी बुद्धिमत्ता के बावजूद धनहानि का सामना करना पड़ता है। आसानी से धन कमाने व संपत्ति जमा करने की लालसा रहती है। बृहस्पति की उच्च स्थिति होने पर भारी दूरदर्शिता और निर्णय क्षमता के कारण अपने काम में हमेशा अपने प्रतिस्पर्धी से एक कदम आगे ही रहते हैं।

प्रेम संबंध, विवाह और संतान :
मूलांक ३ वाले बड़े गुरूघंटाल होते हैं। प्रेम संबंध रखते हैं और पता भी नहीं चलने देते। ये विलासी होते हैं, परंतु अपने मान-सम्मान का पूरा ध्यान रखते हैं। वैवाहिक जीवन सुखी होता है। धार्मिक कार्यो में अधिक रुचि के कारण घर में अशांति आ जाती है। एकाधिक विवाह का योग होता है। इनके एक पुत्र-संतान अवश्य होती है। ३, ६, ७, ९ वाले व्यक्ति इनके अच्छे जीवनसाथी सिद्ध होते हैं।

यात्राएं :
मूलांक ३ वाले व्यक्तियों को अक्सर धार्मिक यात्रा का अवसर मिलता है। विदेश यात्रा से भी लाभ प्राप्त होता है।

शुभ रंग :
पीला रंग अति शुभ है। गुलाबी, हल्का जामुनी, सफेद रंग भी इन्हें लाभ देता है। काला तथा हल्का नीला रंग अशुभ माना गया है।

शुभ तिथियां :
मूलांक ३ वालों के लिए २, ३, ६, ९, २१, २४, २७, ३0, तारीखें शुभ हैं।

शुभ दिन :
मूलांक ३ वालों के लिए गुरुवार, शुक्रवार एवं मंगलवार शुभ होता है।

गुरुमंत्र :
मूलांक ३ वालों को पीली वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए। शुभ रत्न- पीला पुखराज है। सवा पांच से सवा छह रत्ती का पीला पुखराज सोने की अंगूठी में जड़कर, तर्जनी में बृहस्पतिवार को धारण करने से लाभ मिलता है। अगर इसका सामथ्र्य न हो तो पीला रुमाल अपने पास रखें एवं गुरुदेव का ध्यान करके ‘ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रों स: गुरुवे नम:’ का जाप करें।

कई महान योगों ने बनाया टाटा को ‘रतन’ - पं. जयगोविंद शास्त्री

tata कर्मप्रधान जीवन में कर्म करते हुए अगर भाग्य का भी साथ मिल जाए तो व्यक्ति ऊंचाइयों के शिखर पर पहुंच जाता है। कुछ इसी तरह का भाग्य उद्योगपति रतन टाटा का है। इनकी जन्मकुंडली में ४६ शुभ योग हैं।

रतन टाटा का जन्म २८ दिसंबर, १९३७ को सुबह ६ बजकर ३0 मिनट पर मुंबई में हुआ। उनके जन्म के समय धनु लग्न और तुला राशि का उदय हो रहा था। अन्य ग्रहों में लग्न में सूर्य, बुध, शुक्र, द्वितीय धन भाव में गुरु तथा तृतीय पराक्रम भाव में पृथ्वीपुत्र मंगल बैठे हैं, जबकि शनि चतुर्थ, केतु छठे, चंद्र ग्यारहवें तथा राहु बारहवें भाव में हैं।

इनकी जन्मकुंडली में ४६ शुभ योगों का निर्माण हुआ है। जिनमें सर्वोत्तम गजकेसरी योग, चार राजयोग, पांच कर्म जीवयोग तथा तीन वेशियोग हैं। इसी के साथ चार पूर्ण आयु योग, महालक्ष्मीवान योग, अत्यंत धनाढ्य योग के साथ-साथ कई धनयोगों का भी निर्माण हुआ है।

धनु लग्न की कुंडली में लग्न के स्वामी बृहस्पति नीच राशिगत मकर में बैठे हैं। साथ ही इस राशि के स्वामी शनि केंद्र भाव में बैठकर नीच भंगयोग का निर्माण कर रहे हैं। महान गजकेसरी योग ने रतन टाटा को दिग्विजयी बनाया। लग्न भाव में ही भाग्य के स्वामी, कर्म के स्वामी और लाभ के स्वामी बैठे हैं।

किसी भी जातक की जन्मकुंडली में यह योग हो तो श्रेष्ठ भाग्य कर्म और लाभ की ओर ले जाता है। यही योग व्यक्ति को विरासत में अथाह धन दिलाता है। लग्नेश गुरु और धनेश शनि का राशि परिवर्तन भी इन्हें अतुल धन दिलाने का संकेत कर रहा है।

रतन टाटा की जन्मकुंडली के पांच कर्म जीव योग, जो दशमेश बुध के द्वारा निर्मित हैं, इन्हें पूर्ण कर्मयोगी बनाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। २२वें वर्ष से ही भाग्योदय का आनंद लेने वाले रतन का जन्म ही नीचभंग राजयोग बनाने वाले गुरु की महादशा में हुआ।

इनकी जन्मकुंडली में कर्म जीव योगों का अत्यधिक प्रभाव ३२वें वर्ष से हुआ। इनको जनवरी,१९७१ से बुध की महादशा प्रारंभ हुई। यह अवधि इनके जीवन की श्रेष्ठतम अवधियों में से एक रही। यहां से रतन टाटा की ख्याति बढ़नी शुरू हुई।

इस अवधि में ये एक से बढ़कर एक मील के पत्थर पार करते रहे। बुध की महादशा इन पर १९८८ तक रही, उसके बाद योगकारक केतु की महादशा १९९५ तक रही। महान धन, यश और कीर्ति योग का निर्माण करने वाले शुक्र की महादशा इन पर १९९५ से आरंभ हुई। यह योग तब से अब तक रतन टाटा को एक से बढ़कर एक उपलब्धि दिला रहा है।

अत्यंत धनाढ्य योग के साथ-साथ नीच भंग राजयोग बनाने वाले बृहस्पति की अंतरदशा इन पर मार्च, २00५ से नवंबर, २00७ तक रही। इस अवधि में रतन ने एक से बढ़कर एक कारनामे किए और इन्हें विश्वपटल पर अभूतपूर्व ख्याति मिली।

वर्तमान में इन पर धनेश और जनता के कारक शनि की अंतरदशा चल रही है। इसी के फलस्वरूप ये लखटकिया कार बाजार में लाकर जन-जन के चहेते बने हैं। शनि की यह दशा जनवरी, २0११ तक रहेगी। उसके बाद इनकी कुंडली में बुध की अंतरदशा प्रारंभ होगी। यह योग इन्हें आगे भी ढेरों सफलताएं दिलाएगा।

कैसे जानें इष्टकाल को - पं. विनोद राजाभाऊ रावल

ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करने में पंचांगों की जानकारी जितनी अधिक होगी, उतना सही एवं सटीक ज्ञान प्राप्त होगा। जैसा कि पूर्व में उल्लेखित किया गया था कि पंचांग में लघु शब्द-अक्षर का उपयोग अधिक होता है तथा ज्योतिष के साहित्य में भी कई ऐसे शब्द उपयोग में आते हैं जिन्हें समझने में कठिनाई महसूस होती है। कई बार उस शब्द के भ्रम में अर्थ ही नहीं समझ पाते हैं, जैसे सूर्यास्त (सू.अ.) सूर्य के अस्त होने का समय, सूर्योदय (सू.उ.) सूर्य के उदय होने का समय, दिनमान (दि.मा.) सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच के समय को दिनमान कहते हैं। यह समय पंचांग में सामान्यत: घटी एवं पल में दिया जाता है।

रात्रिमान सूर्यास्त से अगले दिन के सूर्योदय के मध्य का समय रात्रिमान कहलाता है। चंद्रस्थिति (च.स्थि.) या चंद्र सचार से लिखा रहता है अर्थात चंद्रमा अमुक राशि में इस समय प्रवेश करेगा।

सर्वक्षय नक्षत्र का मान अर्थात अमुक नक्षत्र अमुक दिन में इतनी घटी एवं इतने पल है।

सोम्यायन सूर्य की उत्तरायण स्थिति को सोम्यायन कहते हैं।

याम्यायनं सूर्य के दक्षिणायन की स्थिति को याम्यायनं कहते हैं। मकर संक्राति (14-15 जनवरी) से सूर्य उत्तरायण होता है तथा कर्क संक्राति (16-17 जुलाई) से मकर संक्राति तक सूर्य दक्षिणायन होता है।

प्रात: सूर्य स्पष्ट (प्रा. सू. स्प.)- प्रात:काल सूर्य की स्थिति जो कि राशि/अंश/कला/विकला(11/29/44/42) में उल्लेखित रहती है। पंचांग में दैनिक या साप्ताहिक ग्रह स्पष्ट रहते हैं। साथ ही दैनिक लग्न सारिणी भी दी जाती है। इसमें प्रवेश अथवा समाप्ति के समय का अवश्य उल्लेख रहता है।

जातक यह शब्द ज्योतिष के साहित्य में अधिक आता है। जिस जन्म लिए बालक-बालिका की चर्चा की जा रही है उसे जातक कहते हैं।

इष्टकाल सूर्योदय से किसी निश्चित (अभीष्ट) समय। घटी पल को इष्टकाल कहेंगे जैसे किसी जातक का जन्म समय दोपहर 2.10 है तो प्रात: सूर्योदय से दोपहर 2.10 तक की समय (जो कि घटी पल में हो) इष्टकाल होगा।

घर का मुख्य द्वार और वास्तु

घर का मुख्य द्वार सभी सुखों को देने वाला होता है। यह भवन का मुख्यांग होने के कारण एक प्रकार से मुखिया है। वास्तुपद रचना के अनुसार यदि द्वार की स्थिति सही हो तो कई दोषों का स्वत: ही निवारण हो जाता है और सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य व यश-कीर्ति में वृद्धि होती है।
वास्तुशास्त्रों में द्वार की रचना पर बहुत जोर दिया गया है। द्वार को जितना सुंदर और मजबूत बनाने पर जोर है, उससे कहीं अधिक बल इस बात पर है कि यह वास्तुपद सम्मत हो। भवन की जो लंबाई चौड़ाई हो, उसे वास्तु पदानुसार आठ-आठ रेखाएं डालकर 64 पदों में बांट दें और दिशानुसार वहां द्वार रखें। यह नियम मुख्य भवन सहित चारदीवारी के प्रधान द्वार के लिए भी लागू होता है।
‘समरांगण सूत्रधार’ और ‘अपराजितपृच्छा’ में द्वार निवेश के बारे में विस्तार से बताया गया है। मयमतं, वास्तुप्रदीप, राजवल्लभ वास्तुशास्त्र, वास्तुमंजरी में भी यही विचार मिलता है। पूर्वकाल में राजमहलों और हवेलियों के निर्माण के समय द्वार निवेश पर प्रमुखता से विचार होता था। यह विचार आज भी सर्वथा प्रासंगिक है।
इस नियम के अनुसार पूर्व के क्रम से ईशान कोण से क्रमश: पहला और दूसरा क्षेत्र छोड़कर तीसरे और चौथे पद पर द्वार रखना चाहिए। ऐसे द्वार धन, धान्यप्रद, सरकार से सम्मान और रोजगार की दृष्टि से सुकून देने वाले होते हैं।
दक्षिण में आग्नेय कोण से क्रमश: तीन पद छोड़कर आगे के तीन पदों पर द्वार रखने से पुत्र-पौत्र, धन और यश की प्राप्ति होती है। पश्चिम में नैऋत्यकोण से दो पद छोड़कर चार पदों पर द्वार निवेश से धन-वैभव, विशेष संपदा और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार उत्तर में वायव्य से तीन पद छोड़कर क्रमश: तीन पदों पर द्वार रखने से धन संपदा, सुख और निरंतर आय की प्राप्ति होती है।
द्वार पर लगाया जाने वाला किवाड़ बिल्कुल पतला नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर भुखमरी या अर्थाभाव का सामना करना पड़ सकता है। यदि किवाड़ टेढ़ा-मेढ़ा हो जाए तो अमंगलकारी होता है। इस कारण दिमागी संतुलन बिगड़ सकता है।
यदि किवाड़ में जोड़ गड़बड़ हो तो भवन मालिक कई कष्ट झेलता है। यह पारिवारिक शांति को प्रभावित करता है। यदि किवाड़ भवन के अंदर की ओर लटक जाए तो बहुत कष्टकारी और बाहर की ओर लटका हो तो वहां रहने वाले निरंतर प्रवास पर ही रहते हैं।

रसोईघर का वास्तु - डॉ. श्रीकृष्ण

रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है।
ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए।
यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रrास्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
इससे रसोई का खर्च बढ़ता है और घर में अनर्गल वार्तालाप भी बढ़ता है। भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
रसोई घर के लिए जरूरी टिप्स.. 1. रसोई घर में अन्नपूर्णा या लक्ष्मीजी का चित्र लगाना चाहिए और रसोई बनाने से पूर्व चित्र पर अगरबत्ती लगानी चाहिए। 2. भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें। 3. भोजन करने के बाद एक कौर हर हाल में टिफिन में बचाकर रखें। 4. अपने हाथों से एक रोटी गाय को अवश्य दें। यदि द्वार पर श्वान बैठता हो तो उसे भी रोटी से संतुष्ट करें। 5. यदि भोजन की सामग्री रसोई घर में ही रखी जाती हो तो उसे हटा दें और दक्षिण दिशा में रखने का प्रबंध करें। 6. रसोई को व्यवस्थित रूप से तैयार करें और कम समय के लिए ही एग्जॉस्ट फैन चलाएं।

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सोमवार, 23 नवंबर 2009

अच्छे चित्र देते हैं उन्नति की ऊर्जा - डॉ. श्रीकृष्ण

चित्र-वास्तु.krishna हमारे जीवन में चित्रों का बड़ा महत्व है। पूर्वकाल में घर की दीवारों पर फ्रेस्को पेंटिंग की जाती थी। हाथ से बनाए गए चित्रों और मांडनों को चिपकाया जाता था। मांगलिक, शुभ कार्यो में देवचित्रों को प्रधानता से प्रयोग में लाया जाता था। विवाह, यज्ञोपवीत, तीर्थाटन से वापसी जैसे प्रसंगों पर चित्रकारों को न्यौतकर चित्रांकन कराया जाता था। ये चित्र घर में मंगल-मांगल्य की सृष्टि करते थे।
चित्रों के प्रसंग में यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी तरह से विकृत चित्र अथवा रंगविहीन रेखाचित्र को कभी दीवार पर नहीं लगाएं। वास्तु ग्रंथों में मयमतम्, समरांगण सूत्रधार, मानसार आदि में चित्रों के संबंध में कई निर्देश दिए गए हैं।
इसी आधार पर अपराजितपृच्छा, वास्तुमंडन व राजवल्लभ में भी कहा गया है कि विकृत, अंग-भंग वाले, युद्ध के दृश्य वाले वीभत्स चित्र, नग्न, अश्लील, मांसभक्षी श्वान, सर्प, नकुल, सिंह आदि चौपायों के चित्र घर में वर्जित हैं।
घर में ऐसे ही चित्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए जिनसे प्रेम, सहिष्णुता, आस्था का उदय होता हो। प्रेरक चित्र बहुत शुभ हैं। ऐसे धार्मिक चित्रों में युद्ध दृश्य विहीन श्रीकृष्ण द्वारा अजरुन को गीतोपदेश, रास मंडल, ध्यानस्थ शिव, सौम्य रूप में विष्णु व किसी देवस्थान का छायाचित्र भी शुभ है।
प्रकृति दर्शन करवाने वाले हरियाली, झरनों व पानी के दृश्य भी शुभ हैं। यदि परिवार के पूर्वजों की तस्वीर लगानी हो तो उसे घर में ऐसे स्थान पर लगाएं, जहां से पूरे घर पर निगाह पड़ती हो। नरसिंहपुराण में देवताओं के पट्टचित्र के पूजन और दर्शन से इष्टसिद्धि करने का उल्लेख है। वैसे घर की दीवारों पर अधिक चित्र नहीं लगाने चाहिए।
चित्र कब लगाएं
अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा नक्षत्र और बुधवार, गुरुवार व शुक्रवार के साथ-साथ द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी एवं पूर्णिमा तिथियां चित्रकला और चित्रों के संयोजन के लिए शुभ हैं। यदि देवी-देवताओं के चित्र लगाना हों तो इन देवताओं के वार, तिथि भी ग्रहण की जा सकती है किंतु इसके लिए पूर्वाह्न् का समय शुभ है।
कहां कैसे चित्र हों
दुकान:
बैठी हुई लक्ष्मी का चित्र, जिसके गज सूंड से जलाभिषेक करते हों, श्रीयंत्र और आसनस्थ लेखक-गणोश।
बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान :
संसार का नक्शा, कोई झरना, गीतोपदेश और तैरती मछलियां।
अध्ययन कक्ष व शिक्षण संस्था :
उपदेश करते ऋषियों व महापुरुषों के आवक्ष चित्र, सुलेख वाले अक्षर, ब्राrाी, शारदा व देवनागरी लिपि के प्रदक्षिण अर्थात् पूर्व से दक्षिण की ओर लिखे सद्वाक्य।

बृहस्पति को प्रसन्न कर पाएं धन लाभ - सुमन पंडित

लाल किताब ज्योतिष में कुछ ऐसे सिद्धांत हैं, जो कि फलादेश के लिए बहुत आवश्यक हैं। लाल किताब में अंधे ग्रहों की कुंडली या अंधे ग्रहों के टेवा jupiterका जिक्र आता है। इसके अनुसार दसवें घर में शनि की मकर राशि आती है और इस प्रकार इस घर का सीधा संबंध शनि से है। यदि दसवें भाव या घर में दो या दो से अधिक ऐसे ग्रह हों, जो आपस में शत्रु हों या नीच राशि के ग्रहों से दसवां भाव खराब हो तो कुंडली के सभी ग्रह अंधे की तरह फल देने वाले होते हैं अर्थात बहुत हद तक उस कुंडली में शुभ ग्रहों का भी फल निष्फल रहता है। इस प्रकार के योग में व्यक्ति जीवन में कितना भी संघर्ष और मेहनत करें, उसे पूर्ण प्रतिफल नहीं मिल पाता। कार्यक्षेत्र में उतार-चढ़ाव रहते हैं। दसवां घर शनि का पक्का स्थान है और इसका हमारे कर्मक्षेत्र और जीवनयापन के साधन से सीधा संबंध है। इस घर में यदि एक से ज्यादा शत्रु ग्रह हों तो ये नौकरी या व्यवसाय में स्थिरता नहीं रहने देंगे। उदाहरण के लिए दसवें घर में यदि सूर्य, केतु और शुक्र में कोई दो या तीनों ग्रह आ जाएं तो इस प्रकार की कुंडली अंधे ग्रहों का टेवा कहलाएगी।
इसी प्रकार यदि बृहस्पति, राहु और शुक्र दसवें घर में हांे तो यह कुंडली अंधे ग्रहों की कुंडली होगी। यहां बृहस्पति पहले से बहुत कमजोर है, क्योंकि यहां गुरु दसवें भाव में कालपुरुष कुंडली के अनुसार अपने नीच घर में अपने शत्रु राहु और शुक्र के साथ है। यहां राहु और शुक्र दोनों अपने मित्र ग्रह शनि के घर में होने से बलवान हैं। इस प्रकार के योग से कुंडली में बृहस्पति का प्रभाव निष्फल हो जाएगा या उसके शुभ प्रभाव में कमी आ जाएगी।
लाल किताब में दसवें घर के बृहस्पति के बारे में कहा गया है कि ऐसी स्थिति में जातक को धन की कमी रहती है। यहां बृहस्पति होने से धन कमाने के लिए दिमागी काम के बजाय शारीरिक मेहनत से किए काम से लाभ होता है। दूसरों की भलाई करना अशुभ फल देता है अर्थात यहां शनि के पक्के घर में बैठे बृहस्पति को शनिवत व्यवहार/कार्य/व्यवसाय से ही लाभ हो सकता है। यदि बृहस्पति, शुक्र और राहु दसवें घर में हों तो अंधे व्यक्ति को भोजन कराना चाहिए। किसी भी एक समय का पूरा नाश्ता या दोपहर का भोजन, जिसमें मीठा जरूर हो, खुद दस दृष्टिहीन व्यक्तियों को परोसें।
इसके अलावा दसवें घर में बैठे अन्य ग्रहों को समझकर उन सभी का उपाय करने से शुभ फल प्राप्त होगा जैसे ऊपर दिए योग में पहले तो दस दृष्टिहीन व्यक्तियों को भोजन खिलाएं और फिर बृहस्पति की कारक वस्तुएं हल्दी या चने की दाल धर्मस्थान में देने से इसका प्रभाव ठीक होगा।

गृह निर्माण के लिए शुभ मार्गशीर्ष और पौष - डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू

मार्गशीर्ष और पौष मास में नया घर बनवाना शुभ है। ज्योतिष और वास्तु शास्त्र में जिन मासों को गृह निर्माण के लिए शुभ माना गया है, उनमें इन गृह निर्माण के लिए शुभ मार्गशीर्ष और पौषदोनों मास को धन-धान्य के भंडार को भरा रखने वाला बताया गया है। स्थायी आवास बनवाने में मास विचार को अपरिहार्य किया गया है। पूर्वकाल में मार्गशीर्ष या अगहन मास को गृहारंभ के लिए शुभ कहा गया, वराहमिहिर ने 580 ई. में पहली बार पौष को भी गृहारंभ के लिए प्रशस्त बताया था।
आचार्य जिनदत्त सूरि कृत विवेक विलास, सूत्रधार मंडन कृत राजवल्लभ, श्रीपति कृत ज्योतिष रत्नमाला और दैवज्ञवल्लभ आदि ग्रंथों में गृह, देव प्रासाद, यज्ञशाला अन्य शालागृह के निर्माण के लिए मार्गशीर्ष व पौष को शुभ कहा गया है। मार्गशीर्ष व पौष में गृहारंभ करने से उस घर में हमेशा वैभव रहता है। वास्तुप्रदीप में मार्गशीर्ष को बहुत धन लाभ देने वाला मास कहा गया है। इसके बाद माघ में गृहारंभ करने से अग्निकांड की आशंका रहती है। लोक मान्यताओं के चलते कतिपय क्षेत्रों में धनु या मलमास को टाला जाता है, किंतु शास्त्रों में इसका निषेध नहीं है। इस कार्य में प्रचलित नाम राशि को ही प्राथमिकता देने का विधान है। बुध, गुरु, शुक्र व शनि की होरा प्रशस्त है।
सामान्यत: गृहारंभ के लिए 2, 3, 5, 6, 7, 10, 11, 13 और पूर्णिमा तिथियां और वारों में सोम, बुध, गुरु, शुक्र और शनिवार ग्राह्य हैं। नक्षत्रों में रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, स्वाति, अनुराधा, तीनों उत्तरा, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती व पुष्य शुभ हैं किंतु वे वेधरहित हों और लग्नों में पहला, तीसरा, पांचवां, छठवां, आठवां, ग्यारहवां व बारहवां लग्न शुभ है। लग्न से त्रिकोण में शुभ ग्रह हो तथा तीसरे, छठवें, ग्यारहवें स्थान में पापग्रह और आठवां स्थान शुद्ध देखना चाहिए।
भूमि परीक्षण : गृह निर्माण प्रारंभ करने से पूर्व भूमि परीक्षण करना बहुत अच्छा है। जहां कार्य प्रारंभ करना हो, वहां एक हाथ लंबा-चौड़ा और एक हाथ ही गहरा गड्ढा खोदें और कुछ देर बाद उसमें से निकाली गई मिट्टी को पुन: उसी में भरें। यह ध्यान दें कि यदि निकली हुई सारी मिट्टी उस गड्ढे में आने से बच जाए तो वह भूमि और वहां पर गृह लाभदायक, वृद्धिकारक रहेगा और यदि मिट्टी कम पड़ जाए या गड्ढा उसी मिट्टी से पूरा नहीं भरे तो घाटे का सौदा रहेगा।

गठिया रोग ज्योतिषीय कारण एवं उपचार - पुष्कर राज

गठिया रोग ज्योतिषीय कारण एवं उपचार शरीर में यूरिक अम्ल का संतुलन बिगड़ जाने से घुटनों व जोड़ों में श्वेत पदार्थ जमकर उन्हें निष्क्रिय बना देता है। इससे रोगी उठने-बैठने व चलने-फिरने में दर्द का अनुभव या असमर्थता प्रकट करता है। 45 वर्ष की आयु के बाद प्राय: यह रोग सक्रिय होता है। यह बुढ़ापे का एक कष्टकारी रोग है। इसे आमवात भी कहते हैं।
ज्योतिष मतानुसार इस रोग का कारक ग्रह बृहस्पति है। गुरु व लग्नेश की युति षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर गठिया रोग होता है। वृष, मिथुन व तुला राशि के जातकों में गठिया का विशेष प्रभाव देखा जाता है। कुछ विद्वानों ने वृष, सिंह, कन्या, मकर व मीन राशियों में शनि, मंगल व राहु की युति व दृष्टि संबंध से भी इस रोग के होने की पुष्टि की है। आचार्य वराहमिहिर ने लग्न में बृहस्पति पर सप्तम में शनि की दृष्टि से गठिया रोग होना बताया है।
अनुभूत योग:
लग्न में बृहस्पति सप्तम के शनि द्वारा दृष्ट है। अत: जातक गठिया रोग से पीड़ित रहा।
ज्योतिषीय उपचार
* गुरुवार को गुरु की वस्तुओं का दान, व्रत व मंत्र साधना करनी चाहिए। एक माला ऊं बृं बृहस्पतये नम: का जाप प्रतिदिन करना चाहिए।
* गुरुवार को गाय को चने की दाल, रोटी एवं केला खिलाना चाहिए।
* मंगल, शनि व राहू आदि की वजह से गठिया रोग हो तो उस ग्रह से संबंधित दान, व्रत, मंत्र जाप करने से रोग में शांति मिलेगी।
* सप्ताह में एक बार लंघन करना अर्थात निराहार रहकर मंत्र साधना करने से बहुत लाभ होगा।

लग्न कैसे निकालें - पं. विनोद राजाभाऊ

जन्म कुंडली में सर्वाधिक महत्व लग्न का है। जब भी कोई व्यक्ति ज्योतिष या किसी जातक की चर्चा करेगा तो पहले लग्न क्या है, पूछा जाएगा। लग्न से व्यक्ति की संपूर्ण शारीरिक संरचना का ज्ञान होता है। अत: लग्न की गणना करते समय बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। पूर्व दिशा में उदित होने वाली राशि को लग्न कहते हैं अर्थात जब जातक का जन्म हुआ उस समय में पूर्व दिशा में जो राशि होती है उसे ही लग्न कहेंगे।
जन्म समय को स्थानीय समय में परिवर्तन कर उसे घटी-पल में परिवर्तन कर इष्टकाल बनाने के पश्चात हम लग्न निकाल सकते हैं। पंचांग में प्रात: सूर्य स्पष्ट (प्रा.सू.स्प) दिया रहता है। जिस दिनांक का जन्म हो, उस दिनांक का प्रात: सूर्य स्पष्ट पंचांग में देख लें। गत अंक में इष्ट दिनांक 01.01.२क्क्८ का (उज्जैन) प्रात: सूर्य स्पष्ट 8:16:2:44 (राशि: अंश: कला: विकला) है। यहां हम केवल 8 राशि एवं 16 कला को ही लेंगे तथा पंचांग में 8 राशि एवं 16 कला का मान देखेंगे जो कि लग्न सारिणी में दिया गया है।
8-16 का मान 48:39:12 आया इसमें इष्टकाल को जोड़ दिया 48:39:१२ + इष्टकाल 4:५८:क्क् (गत अंक से) = 53:३७:१२ आया। यदि जोड़ 60 से अधिक हो तो 60 से कम कर लें। इसे पुन: लग्न सारिणी में देखा तो इसके निकटतम अंक मिले 53:३६:३६ जिसके बायीं ओर देखने में मकर राशि तथा ऊपर अंश के कॉलम में देखने पर 17 मिले। अत: लग्न स्पष्ट हुआ 9:१७:५३:३६ मकर राशि १७ अंश ५३ कला एवं 36 विकला। यहां जिज्ञासुओं को ध्यान देने योग्य बात यह है कि पंचांग में किसी भी ग्रह की स्थिति का उल्लेख रहता है।
उसे ऐसे समझेंगे जैसे दिनांक 01.01.क्८ को सूर्य ८:१६:२:४४ था अर्थात सूर्य वृश्चिक राशि को क्रॉस कर 16 अंश एवं 2 कला एवं 44 विकला पर था। तो इसे लिखने या बोलने में धनु में सूर्य कहेंगे क्योंकि आठवीं राशि वृश्चिक है तथा नवमीं राशि धनु है। यहां सूर्य आठवीं राशि क्रॉस (पूर्ण) कर नवमीं राशि में भ्रमण कर रहा है। उपरोक्त लग्न स्पष्ट होने के पश्चात अब हम लग्न कुंडली बना सकते हैं। कुंडली में 12 खाने (कॉलम) होते हैं। यह हम खींच लें। ऊपर के मध्य कॉलम को लग्न से संबोधित करते हैं।
इस कॉलम में हम 10 अंक लिखेंगे, यह 10वीं राशि मकर को इंगित करती है। चूंकि गणना में लग्न मकर आया। जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है - लग्न 9:१७:५३:३६ अर्थात नवीं राशि धनु को क्रॉस कर 10वीं राशि मकर में लग्न चल रहा है। अब हम कुंडली बनाकर लग्न स्थान में 10वीं राशि लिखकर आगे बायीं तरफ बढ़ते क्रम में लिखते जाएंगे। जैसे 11, 12, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9। बारह के पश्चात पुन: एक से आरंभ करेंगे क्योंकि कुल राशि बारह ही होती है।

उम्र जानें.. अपने लाड़ले की - डॉ. अनुराग

आयुर्वेद आयु संबंधी विज्ञान है। नवजात शिशु की आयु जानने के लिए महर्षि अग्निवेश ने शिशु के शारीरिक अंगों की परीक्षा का विधान बतलाया है, जिससे उनकी आयु का आकलन किया जा सकता है।
केश : प्रत्येक रोमकूप में से एक-एक केश निकला हो, बाल मुलायम, अल्प, चिकने व मजबूत जड़ वाले हों। ऐसे बाल शुभ होते हैं।
त्वचा : अपने-अपने अवयवों के ऊपर अच्छी तरह से स्थिर त्वचा अच्छी मानी गई है। सिर : अपनी स्वाभाविक आकृति वाला सिर, शरीर के अनुपात में, छाते के समान बीच में कुछ ऊंचा सिर श्रेष्ठ होता है।
ललाट : चौड़ा, मजबूत, समतल, शंख प्रदेश की संधियां परस्पर मिली हों, ऊपर की ओर रेखाएं उभारयुक्त हों, ललाट मांसल हों। अभिप्राय यह है कि उस पर केवल त्वचा का ही आवरण न हो। माथे पर वलियां दिखाई दें। अर्धचंद्र की आकृति वाला ललाट शुभ होता है।
कान : दोनों कान मांसल हों, बड़े, पीछे की ओर समतल भाग वाले और बाहरी भाग मजबूत हो, कर्ण गुह्य के छिद्र मजबूत हों, ऐसे कान शुभ होते हैं।
भौंहें : दोनों भौंहें थोड़ा-सा नीचे की ओर लटकी हों, नाक के ऊपरी भाग के पास भौंहें मिली न हों, दोनों समान व दूर तक फैली हुई हांे। ऐसी लंबे आकार वाली भौंहें शुभ होती हैं।
आंखें : दोनों आंखों का आकार समान हो अर्थात एक आंख बड़ी और एक छोटी न हो। दृष्टि मंडल, कृष्ण मंडल तथा श्वेत मंडल का विभाजन ठीक ढंग से हुआ हो, आंखें बलवती और तेजोमय हों। ऐसी आंखें शुभ लक्षणों से युक्त मानी गई हैं।
नासिका : सीधी, लंबी, सांस लेने में समर्थ और नासिका का अगला कुछ भाग झुका हुआ हो तो ऐसी नासिका शुभ होती है।
मुख : मुख का आकार बड़ा तथा शरीर के अनुपात में होना चाहिए। सीधा व जिसके भीतर दंतपंक्ति व्यवस्थित हो, ऐसा मुख शुभ होता है। हालांकि इस समय दंत उत्पत्ति नहीं हुई होती, लेकिन शिशु के मसूढ़ों को देखकर दांतों की परीक्षा की जा सकती है।
जीभ : चिकनी अर्थात जिसमें खुरदरापन न हो, पतली, अपनी आकृति तथा अपने वर्ण से युक्त जीभ शुभ होती है।
तालु : चिकना, मांस से समुचित रूप से भरा हुआ और स्वाभाविक गरमी से युक्त लाल वर्ण का तालु शुभ होता है।
स्वर : दीनतारहित, चिकना, स्पष्ट और गंभीर स्वर शुभ होता है।
होंठ : दोनों होंठ न अधिक मोटे हों, न अधिक पतले हों, मुंह को भलीभांति ढंकने में समर्थ हों तथा लालिमा से युक्त हों।
हनु : ठोढ़ी को हनु भी कहा जाता है। ठोढ़ी की दोनों हड्डियों का समान रूप से बड़ा होना शुभ होता है।
गर्दन : गर्दन का गोलाकार होना और अधिक लंबी न होना शुभ होता है।
उर : चौड़ी और मांसपेशियों से ढंकी छाती शुभ है।
कॉलर बोन तथा रीढ़ : इन दोनों का मांसपेशियों से ढंका रहना शुभ लक्षण माना गया है।
स्तन : दोनों स्तनों के बीच पर्याप्त दूरी का होना शुभ माना गया है।
पाश्र्व : दोनों पाश्र्व भाग मांसल, पतले व स्थिर हों तो शुभ माने जाते हैं।
बाहु, टांगें और उंगलियां : दोनों भुजाएं, पैर और उंगलियां गोलाकार और अपने अनुपात से लंबी हों तो शुभ होती हैं।
हाथ-पैर : जिसके हाथ-पैर लंबे हों और मांस से भरे-पूरे हों, पादतल और करतल मांसल हो, ऐसे हाथ-पैरों को शुभ माना गया है।
नख : स्थिर, ठोस, आकार में गोल, चिकने, तांबे के समान लालवर्ण वाले, बीच में उठे हुए और कछुए की पीठ की हड्डी के समान नाखून शुभ माने गए हैं।
नाभि : दाहिनी ओर घुमाव वाली, बीच में गहरी व चारों ओर से उठे किनारों वाली नाभि को परम शुभ माना गया है।
कटि : कमर छाती की चौड़ाई से तीन हिस्सा पतली, समतल, समुचित रूप से मांसपेशियों से ढंकी हुई अर्थात जो आवश्यकता से अधिक मोटी न हो, वह शुभ होती है।
कूल्हे : दोनों कूल्हे सामान्य रूप से गोलाकार होने चाहिए, मांस से परिपुष्ट होने चाहिए, अधिक उठे हुए और अधिक धंसे हुए नहीं होने चाहिए।
जंघा : दोनों जांघें हरिणी के पैर जैसी, जो न अधिक मोटी हों और न अधिक पतली अर्थात मांसहीन हों, ऐसी जांघें शुभ मानी गई हैं।

देवालय के आसपास नहीं हो घर - श्रीकृष्ण जुगनू

अपना घर न तो किसी प्राचीन देवालय के सामने बनवाएं, न ही घर के सामने कोई देवालय बनवाएं। यह भयंकर दोषकारी है। वास्तुशास्त्र में इसे वेध कहा गया है जिसे हर हाल में टालना चाहिए। यदि जिद के साथ ऐसा निर्माण किया जाता है तो संतान को पीड़ा, नेत्र बाधा, अपस्मार, अंग विकृति जैसी परेशानियां हो सकती हैं।
घर सुख-साधना का केंद्र है। इहलोक और परलोक की सिद्धि में घर बड़ी मदद करता है। भविष्यपुराण में कहा गया है कि अपने घर में किए गए हवन, यज्ञ-अनुष्ठानों का फल निश्चित ही गृहपति को मिलता है। ऐसे में घर का निरापद होना जरूरी है।
इसके लिए सर्वप्रथम उसे देव-वेध से बचाना चाहिए। वेधवास्तु प्रभाकर, निर्दोष वास्तु और वास्तु उद्धारधोरणी जैसे ग्रंथों में जिन उन्नीस प्रकार के वेधों का उल्लेख है, देव-वेध उनमें प्रमुख है। मत्स्यपुराण में भी वेध को हर हाल में टालकर वास्तु निर्माण का निर्देश है।
जो लोग पुराने देवालय के सामने घर या व्यापारिक प्रतिष्ठान बनवाते हैं, वे धन तो पाते हैं किंतु शारीरिक आपदाओं से घिर जाते हैं। यदि शिवालय के सामने घर बना हो तो मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है। जिनालय के सामने बना हो तो घर शून्य रहेगा या वैभव से वैराग्य हो जाएगा।
भैरव, कार्तिकेय, बलदेव और देवी मंदिर के सामने घर बनाया गया तो क्रोध और कलह की आशंका रहेगी जबकि विष्णु मंदिर के सामने घर बनाने पर घर-परिवार को अज्ञात बीमारियां घेरे रहती हैं। इसी तरह मंदिर की जमीन या अन्य किसी हिस्से पर कब्जा नहीं करना चाहिए। मंदिर के किसी टूटे पत्थर को भी चिनाई के कार्य में नहीं लेना चाहिए।
यह भी कहा गया है कि देवालय वेध से वंश नहीं बढ़ता है। व्यक्ति तनाव और अवसाद का शिकार हो जाता है। उसे पक्षाघात, अंग विकृति, नेत्र ज्योति में बाधा भी हो सकती है। इसका कोई कारगर उपाय भी नहीं है, लेकिन द्वार बदलकर थोड़ी राहत पाई जा सकती है किंतु यह परिवर्तन बहुत सावधानी से होना चाहिए। प्राचीन काल में ऐसा दोष होने पर मंदिर की दूरी के बराबर बड़ा द्वार या पोल बनाकर नई बस्ती को बसाया जाता था।
पानी पर आवास नहीं हो :
भविष्यपुराण में जिक्र है कि जल के स्थान पर कभी आवास नहीं होना चाहिए। हां, विहार स्थल हो सकता है किंतु जल-पुलिया पर आवास नहीं होना चाहिए। देवालय नीचे हो और अपना आवास उससे ऊंचा हो, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। किसी देवता का मुख अपने घर की ओर भी नहीं होना चाहिए। यदि घर में भी ऐसा हो तो पूजा के बाद पर्दा ढंक दिया जाना चाहिए।

ग्रहों के हाल से जानिए कब्ज का उपचार - पं. पुष्कर राज

कब्ज पेट के रोगों में सबसे आम बीमारी है। पेट का साफ न होना, खुलकर शौच न होना ही कब्ज है। रोग के आरंभ में अपच, आलस्य, सिरदर्द, acidityउल्टी आदि लक्षण प्रकट होते हैं। पानी ज्यादा पीकर व खान-पान में परहेज रखकर इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है।
ज्योतिषीय कारण: जातक ग्रंथों के अनुसार शरीर में अवरोध का कारक ग्रह शनि है। कन्या और तुला राशि पेट से संबंधित कारक राशियों में गिनी जाती है। छठा भाव भी पेट से ही संबंध रखता है। यदि शनि कर्क, कन्या राशि में या छठे भाव में हो तो निश्चित ही कब्ज करने वाला सिद्ध होगा। कन्या या तुला राशि में अशुभ ग्रह हों तो मलावरोध की शिकायत रहेगी। कन्या या तुला राशि में अशुभ ग्रह हों और षष्ठेश से शनि की युति या दृष्टिगत संबंध हो तो भी जातक कब्ज से पीड़ित होगा। शनि अष्टम भाव में दीर्घायु बनाता है, परंतु पेट के रोग का कारक भी सिद्ध होता है।
उपचार : कब्ज की शिकायत वालों को शनि से संबंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए। इनमें तिलदान, तेलदान, उड़द की बनी वस्तुएं, काला वस्त्र, छाता, जूते व सिक्के प्रमुख हैं। शनिवार का व्रत और रोजाना ऊं शं शनैश्चराय नम: मंत्र की एक माला संध्याकाल में या रात में आसन पर बैठकर दीपक लगाकर करें। इससे रोग निदान के स्तर तक पहुंचा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त सुबह शनि के स्मरण के साथ खाली पेट एक लोटा पानी पीने और खाली पेट ही प्राणायाम करने से भी कब्ज से निजात पाया जा सकता है।

स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं वास्तुदोष - कुलदीप सलूजा

आजकल छोटे या बड़े भवनों की बनावट पहले के भवनों की तुलना में सुंदर व भव्य जरूर हो गई है, लेकिन आर्किटेक्ट मकानों को सुंदरता प्रदान करने के लिए अनियमित आकार को महत्व देने लगे हैं। इस कारण मकान बनाते समय जाने-अनजाने वास्तु सिद्धांतों की अवहेलना हो रही है। महिला हो या पुरुष, उनकी हर प्रकार की बीमारी में वास्तुदोष की अपनी भूमिका रहती है। वास्तुदोष के कारण घर में सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के बीच असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है। इस कारण वहां रहने वालों के शारीरिक व मानसिक रोगी बनने की आशंका होती है।
वैसे तो सभी दिशाएं प्रकृति की ही हैं और सभी शुभ हैं। वास्तुशास्त्र तो मात्र प्रकृति में व्याप्त सूर्य की जीवनदायी सकारात्मक ऊर्जा के श्रेष्ठ उपयोग का तरीका बताता है ताकि पृथ्वीवासी स्वस्थ, सुखद व शांतिपूर्वक जीवन जी सकें। वह भवन, जहां पर प्रात:काल की बजाय दोपहर की किरणों आती हैं वहां रहने वालों का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। दोपहर के समय पृथ्वी पर पड़ने वाली सूर्य की नकारात्मक किरणों (अल्ट्रा वायलेट) होती हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदेह हैं। इसी कारण वास्तुशास्त्र में दक्षिण व पश्चिम की दीवारों को ऊंचा रखने का प्रावधान है। साथ ही इन दिशाओं में उत्तर व पूर्व की तुलना में कम खिड़की-दरवाजे रखने की सलाह दी गई है ताकि उस घर में रहने वाले सदस्य इन नकारात्मक ऊर्जा से युक्त किरणों के संपर्क में कम से कम आएं तथा ईशान दिशा में स्थित जल स्रोतों पर भी यह किरणों न पड़ सकें।
भवन के ईशान कोण में अधिक खाली जगह रखने का कारण भी सूर्य की गति ही है। जब सूर्य उत्तरायण की तरफ होता है तो दोपहर तक लाभदायक किरणों पृथ्वी पर पड़ती हैं। जब सूर्य दक्षिणायण होता है तो दोपहर के पूर्व ही हानिकारक किरणों पड़नी शुरू हो जाती हैं, क्योंकि दिन छोटे होते जाते हैं। अत: उत्तरायण काल की सूर्य की किरणों का पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए ही वास्तुशास्त्र में दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में ज्यादा खाली जगह छोड़ने की सलाह दी गई है।
जिस घर का नैऋ त्य कोण, किसी भी प्रकार से नीचा हो या वहां किसी भी प्रकार का भूमिगत पानी का टैंक, कुआं, बोरवेल, सेप्टिक टैंक इत्यादि हो तो वहां रहने वाले के असामयिक मृत्यु का शिकार होने की आशंका रहती है। ध्यान रहे वास्तुशास्त्र एक विज्ञान है। घर की बनावट में ही वास्तु अनुकूल परिवर्तन कर वास्तुदोषों को दूर किया जा सकता है। बाकी टोटकों की जरूरत नहीं है।

गहरे रंगों से बचें मूलांक 7 वाले

जिन व्यक्तियों का जन्म किसी भी माह की 7, 16 या 25 तारीख को होता है, उनका मूलांक ‘7’ बनता है। इस मूलांक का मुख्य कारक ग्रह गहरे रंगों से बचें मूलांक 7 वाले नेपच्यून और चंद्रमा है। सात का अंक गुप्त एवं वैज्ञानिक प्रभाव से परिपूर्ण है। सातवां दिन सृष्टि की रचना के उपरांत विश्राम का दिन भी माना गया है। यह अंक सात दिन, सात रंग, सात मुख्य ग्रह, विवाह के अवसर पर सात फेरे से संबंधित है। बाइबल में भी सात को महत्वपूर्ण अंक माना गया है।
स्वभाव : मूलांक 7 वाले व्यक्ति आलसी और क्रियाशील दोनों प्रकार के होते हैं। इनमें दूसरों के मन को भांपने की भी शक्ति होती है। ये सच्चई पसंद व गंभीर प्रवृत्ति के होते हैं। धार्मिक कार्यो में रुचि रखते हैं, परंतु लकीर के फकीर नहीं होते। इनकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है।
स्वास्थ्य : जीवन में जब तक सब ठीक चलता रहता है, ये प्रसन्न रहते हैं। जीवन में थोड़ी बिगड़ी स्थिति भी इनके मन के संतुलन को बिगाड़ देती है। ये अधिक चिंता तथा मानसिक रोगों से ग्रस्त रहते हैं। बदहजमी, फोड़े, मुंह पर झाइयां, आंखों के नीचे काले धब्बे, उदर तथा आंखों के रोग होने की आशंका रहती है। प्रतिवर्ष जनवरी, फरवरी, जुलाई व अगस्त में रोग ग्रस्त होने की अधिक आशंका होती है।
आर्थिक स्थिति : मूलांक 7 वाले धन संग्रह में कम ही सफल होते हैं। ये कम खर्चीले होते हैं, फिर भी इनकी आर्थिक स्थिति विशेष अच्छी नहीं होती। उदार स्वभाव और परोपकारी भावना के कारण पैसा शीघ्र खर्च हो जाता है। दूसरों के हिसाब-किताब की अच्छी व्यवस्था करते हैं, लेकिन निजी मामलों में ज्यादा भाग्यशाली नहीं होते।
व्यवसय व कार्यरुचि : मूलांक 7 वालों का प्रतिनिधि ग्रह विदेशी व्यापार अथवा जहाज संबंधी कार्यो का सूचक माना गया है। आयात-निर्यात के कार्य में इनको विशेष लाभ मिलेगा। इस मूलांक के व्यक्तियों को स्वतंत्र व्यवसाय अपनाना चाहिए।
प्रेमसंबंध एवं संतान : मूलांक 7 के व्यक्ति अपनी संतान से प्रेम तो करते हैं, पर दिखावा कम ही करते हैं। संतान का सुख कम मिलता है। ये एकांतप्रिय होते हैं।
शुभ रंग : इनके लिए दूधिया सफेद रंग विशेष है। हल्का पीला भी शुभ है। गहरे रंग बुरा प्रभाव डालते हैं।
शुभ तिथियां : 7 और २५ शुभ तिथियां हैं। 1,2,4,7,10,11,19 और 20 तिथियां भी अनुकूल हैं।
शुभ दिन : रविवार, सोमवार एवं गुरुवार शुभ दिन होते हैं।
मित्र व शत्रु अंक : मूलांक 2 और 7 अनुकूल और मूलांक 4 और 8 प्रतिकूल प्रभाव देता है।
यात्रा : मूलांक 7 वाले व्यक्तियों को जीवन में काफी यात्राएं करनी पड़ती हैं। ये प्राकृतिक जगहों में घूमना-फिरना पसंद करते हैं।
गुरुमंत्र : मूलांक 7 वाले व्यक्तियों को आलस्य से बचना चाहिए अन्यथा महत्वपूर्ण अवसरों को गंवा सकते हैं। किसी भी तरह के विघ्न, परेशानी तथा अशांति को दूर करने के लिए कुत्तों को रोटी खिलाने से लाभ मिलता है। इनको मोती अथवा मून-स्टोन अति शुभ फल देता है। चमड़ी के रोगों के लिए लहसुनिया पहनना लाभदायक है।

चंद्रमा को जल चढ़ाएं मूलांक २ वाले

अंकtwo ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का किसी भी अंग्रेजी महीने की २, ११, २0, २९ तारीख को जन्म हुआ हो तो उसका जन्म मूलांक ‘२’ माना जाता है। इस अंक का स्वामी चंद्रमा है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह शीतलता एवं कोमलता का प्रतीक है।
स्वभाव :
मूलांक २ जलीय अंक है और चंद्रमा का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। ऐसे व्यक्ति मानसिक शक्ति से ओतप्रोत होते हैं। धैर्यवान होने के कारण बड़े-बड़े संकटों में भी लक्ष्य से विमुख नहीं होते। ये सौंदर्यप्रेमी, कलाप्रिय, भावुक और रुमानी विचारधारा के होते हैं।
यह अंक कल्पनाशीलता का प्रतीक है। भिन्न-भिन्न विचारधाराएं मन-मस्तिष्क पर हावी रहती हैं। कोमल भावनाओं के कारण क्षणिक हानि भी इनको विचलित कर देती है। बुद्धि से सफलता हासिल करते हैं।
स्वास्थ्य :
चंद्रमा का फेफड़ों पर विशेष अधिकार है। उम्र के मध्य तक आते-आते ये अजीर्ण के शिकार बन जाते हैं। मूलांक २ वाले व्यक्तियों को टीबी, खांसी, जुकाम, नजला होने की आशंका रहती है। अनिद्रा और अवसाद जैसे मानसिक रोग भी इनके लिए परेशानी का कारण बन सकते हैं। मूलांक २ वाली स्त्रियों का मासिक धर्म अक्सर अनियमित होता है।
व्यवसाय एवं कार्यरुचि :
अंक २ के जातक की मानसिक स्थिति परिवर्तनशील रहती है। ये अधिक सोचते हैं, पर काम कम करते हैं। ये अक्सर नकारात्मक सोच रखते हैं। इस अंक से प्रभावित लोगों को मुख्यतया तीन प्रवृत्ति के व्यवसायों में रुचि लेनी चाहिए ; प्रथम- आयात-निर्यात, द्वितीय- ट्रांसपोर्ट और तीसरा- प्रकाशन-लेखन या काव्य सृजन इत्यादि। ऐसे लोगों को सड़क मार्ग की अपेक्षा समुद्री मार्ग से व्यापार लाभदायक रहता है। राजनीति, समाजसेवा तथा फिल्म-व्यवसाय में सदैव लाभ ही होता है।
आर्थिक स्थिति:
आर्थिक स्थिति अनिश्चित रहती है। अकस्मात धन आता है, परंतु सावधानी न बरतने के कारण पूंजी के समाप्त होने का डर हमेशा बना रहता है।
प्रेम संबंध, विवाह और संतान :
जीवन में प्रेम-प्रसंगों की अधिकता रहती है, लेकिन किसी का भी स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता। इनका पारिवारिक जीवन सुखद होता है। जीवनसाथी सुंदर, मधुरभाषी व धनी परिवार से होता है। मूलांक २ वाली स्त्रियां अच्छी पत्नियां सिद्ध होती हैं।
यात्राएं :
मूलांक २ वालों को यात्राएं बहुत करनी पड़ती हैं। इन व्यक्तियों का भाग्योदय विदेश में या नदी-समुद्र के किनारे बसे शहरों में अधिक होता है। शुभ रंग : दूधिया रंग विशेष शुभ है। क्रीम, हल्का हरा तथा अंगूरी रंग भी शुभ रहता है। काला रंग अशुभ माना गया है।
मित्र व शत्रु अंक :
१, २, ४, ७ मूलांक वाले व्यक्ति इनके अच्छे मित्र सिद्ध होते हैं। ३ और ६ अंक मध्यम एवं मूलांक ५ और ८ वाले शत्रु अंक माने जाते हैं।
शुभ तिथियां :
मूलांक २ वालों के लिए २, ११, २0 और २९ शुभ तिथियां होती हैं। इनके जीवन में नौकरी, व्यापार तथा अन्य सुखद घटनाएं २६-२७ जून से लेकर २१-२७ जुलाई, २३ अक्टूबर से लेकर नवंबर और १८ फरवरी से लेकर २0-२७ मार्च के बीच होती हैं।
शुभ दिन :
मूलांक २ वालों के लिए रविवार, सोमवार, गुरुवार एवं शुक्रवार के दिन शुभ होते हैं। मंगलवार एवं बुधवार प्रतिकूल सिद्ध होते हैं।
गुरुमंत्र :
मूलांक २ वाले व्यक्ति सोमवार के दिन, सायंकाल में चांदी के लोटे से चंद्रमा को जल अर्पित करें। चिंता, भ्रम, वहम व अनिद्रा निवारण के लिए सोते समय अपने पलंग के सिरहाने किसी बर्तन में पानी रखें। सुबह उठकर यह जल पौधे में डालने से विशेष लाभ होगा। सफेद मोती शुभ फल दे सकता है। सर्दियों में स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखें। पूर्णिमा की रात को चंद्रमा के समक्ष जल अर्पण करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

सूर्य को जल अर्पण करें मूलांक 1 वाले

अंक ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का किसी भी अंग्रेजी महीने की 0१,१0,१९, २८ तारीख को जन्म हुआ हो, तो उसका जन्म मूलांक १ (एक) माना जाता है। इस अंक का स्वामी सूर्य है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह अखंडता और पूर्णता का प्रतीक है। इस अंक वाले व्यक्तियों पर सूर्य का पूर्ण प्रभाव रहता है। यह अंक सक्रियता और प्रबल ऊर्जा शक्ति का प्रतीक होता है।
स्वभाव :
मूलांक १ वाले व्यक्ति स्वाभिमानी, आशावादी, दृढ़ निश्चयी, स्वतंत्रता प्रेमी, स्पष्टवादी नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा वाले होते हैं। किसी की अधीनता में कार्य करना उन्हें पसंद नहीं होता। ऐसे लोग दार्शनिक और दूरदर्शी होते हैं। धार्मिक विश्वासों में या तो एकदम कट्टर या इसके एकदम विपरीत अनास्थावादी होते हैं।
स्वास्थ्य :
इस मूलांक में जन्मे व्यक्तियों के स्वास्थ्य को सबसे अधिक खतरा शारीरिक न होकर मानसिक होता है। इनका स्वभाव ही उनकी बीमारी का कारण बनता है। विशेष स्वास्थ्य हानि, जीवन के ४३वें, ५२वें और ६क्वें वर्ष में होती है।
व्यवसाय एवं कार्य रुचि :
मूलांक १ वाले व्यक्ति क्रियाशील मस्तिष्क तथा संघषर्रत रहने की प्रवृत्ति के स्वामी होते हैं। इनके लिए प्रशासनिक सेवा सबसे अच्छा कार्य क्षेत्र है। राजकीय सेवा के अलावा चिकित्सा, स्वर्ण या जवाहरातों का व्यवसाय लाभदायक होता है। ये अच्छे प्रबंधक, डायरेक्टर, नियंत्रक, आईएएस अधिकारी, श्रेष्ठ डॉक्टर, राजदूत, समाचार-पत्रों के प्रमुख और लेखक भी होते हैं। मूलांक १ वाली स्त्रियां, डॉक्टर, किसी संस्था की प्रमुख, डिजाइनर, सभा सोसायटियों की प्रधान तथा नेता बनती हैं।
आर्थिक स्थिति :
मूलांक १ वाले व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उच्च स्तर की होती है। ऐशोआराम, शानो-शौकत पर बहुत धन व्यय करते हैं। जुआ, सट्टा और चापलूस लोग अधिकतर इनकी हानि का कारण बनते हैं। १९, २१, २२वें वर्ष की आयु में अधिक क्रियाशील होकर अपनी आर्थिक स्थिति को उत्तम बनाने में अग्रसर हो जाते हैं।
प्रेम-संबंध, विवाह और संतान :
मूलांक १ वाले व्यक्ति ऊपर से भले ही सख्त एवं रूखे से लगते हैं, परंतु मन से कोमल तथा प्रेम के भूखे होते हैं। इनका प्रेम संबंध स्थायी एवं पक्का होता है।
यात्राएं :
इस मूलांक वाले व्यक्ति एक ही स्थान पर कार्य करना पसंद करते हैं फिर भी इन्हें यात्राएं करनी पड़ती हैं।
शुभ रंग :
शुभ रंग नारंगी, सुनहरा, हल्का भूरा, गुलाबी और तांबाई होता है।
मित्र व शत्रु अंक :
इस मूलांक के लिए १, ३, ५, ९ अंक के व्यक्ति मित्र और सहयोगी सिद्ध होते हैं। इनके लिए २, ४, ६, ८ शत्रु अंक माने गए हैं।
शुभ तिथियां :
मूलांक १ के लिए १, १0, १९ शुभ तिथियां होती हैं। तिथि २८ भी शुभ है, परंतु कई बार कार्य में विघ्न पड़ जाता है।
शुभ दिन :
इनके लिए रविवार, सोमवार एवं बृहस्पतिवार शुभ दिन होता है।
गुरु मंत्र :
मूलांक १ वाले व्यक्तियों को प्रात: सूर्यदेव को जल अर्पण एवं नमस्कार करना शुभ फल दिलाता है। उन्नति व नौकरी में परेशानी हो तो बंदरों को गुड़, चना खिलाना लाभदायक होता है। सफलता के लिए माणिक रत्न, सोने या तांबे की अंगूठी में धारण करना लाभदायक होगा। उन्हें लोहे की बनी वस्तुओं का व्यवसाय नहीं करना चाहिए। इनके लिए २00८ और २0१७ चौतरफा फलदायी वर्ष है।

कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व

महाकवि कालिदास ने मेघदूत में यक्ष को प्राप्त शाप की अवधि के विषय में लिखा है - जब भगवान विष्णु अपनी शेषशय्या से उठेंगे, तब मेरे शाप का अंत होगा। हे प्रिये! इन चार मासों को तुम आंख मूंदकर व्यतीत कर लो।
कालिदास की इन्हीं दो पंक्तियों के आधार पर उज्जैन में कालिदास समारोह प्रतिवर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन होता है।
मेघदूत के उक्त कथन से यह तो स्पष्ट है कि महाकवि कालिदास के समय अर्थात ईसा पूर्व से ही कार्तिक शुक्ल एकादशी अथवा देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व है। वराहपुराण में लिखा है कि ब्रह्मा ने कुबेर को एकादशी दी और उसने (कुबेर ने) उसे उस व्यक्ति को दिया जो संयमित रहता है, शुद्ध करता है, केवल वही खाता है, जो पका हुआ नहीं है।
कुबेर प्रसन्न होने पर सब कुछ देते हैं। एक नारी का आख्यान लिखा है - अति झगड़ालू थी, अपने प्रेमी के विषय में सोचती थी और इस कारण वह अपने पति द्वारा निंदित हुई और पीटी भी गई। वह क्रोधित होकर बिना भोजन किए रात्रि भर रही। उपवास करने के कारण (जो जानबूझ कर या प्रसन्नतापूर्वक नहीं किया गया था, प्रत्युत क्रोधावेश में किया गया था) वह शुद्ध हो गयी। प्रसन्नतापूर्वक उपवास करने से मनुष्य को गर्हित वासनाओं से निवृत्ति मिलती है।
एकादशी व्रत के सामान्य महत्व के अतिरिक्त देव प्रबोधिनी एकादशी का विशेष सामाजिक महत्व है। वर्षाकाल के चार मासों में भारत के बहुत से भागों में प्राचीन काल में यातायात सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए इस अवधि में विवाह निषिद्ध कर दिया गया। इसका एक और कारण यह है कि ये चार महीने खेती के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और कृषि प्रधान देश भारत का किसान निश्चिंत होकर बिना किसी सामाजिक, धार्मिक दायित्व के इन चार महीनों में अपना कृषिकर्म कर सकता था।
इसलिए संभवत: यह कल्पना की गई कि इस अवधि में भगवान विष्णु शयन करते हैं। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन विशेष उत्सव मनाया जाता है। नए अन्न, मूल तथा फलों से भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है और उन्हें प्रार्थनापूर्वक उठाया जाता है। यद्यपि आज शहरीकरण बढ़ गया है तथा जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग नगरीय जीवन जी रहा है, किंतु भारत के प्रधान व्रत उत्सव, जिनमें देव प्रबोधिनी एकादशी भी शामिल है, आज भी मनाए जाते हैं।
राजबलि पांडे का यह मत है कि वैदिक काल में विष्णु सूर्य के ही एक स्वरूप थे। अत: ये दोनों एकादशियां सूर्य के मेघाच्छन्न और मेघ से मुक्त होने की प्रतीक भी हो सकती हैं। जैसाकि व्रतों के दिन होता है, देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन भी लोग व्रत करते हैं और इन व्रतों के साथ बहुत-सा संयम भी जुड़ा होता है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। नारद पुराण में तो यह विधान किया गया है कि जो मानव आठ वर्ष से अधिक अवस्था का हो और अस्सी वर्ष से कम अवस्था का हो, उसे एकादशी व्रत करना चाहिए। वह यदि मोहवश एकादशी के दिन पका भोजन कर लेता है तो पाप का भागी होता है।
ऋषियों ने सामाजिक स्थिति को देखते हुए संन्यासियों, गृहस्थों, दीक्षित वैष्णवों, सामान्य वैष्णवों (स्मार्तो) के लिए उपवास की अलग-अलग व्यवस्था की है, जिसमें कृष्ण एकादशी को व्रत न करना, केवल पका भोजन न करना या कि अशक्त होने पर केवल रात्रि भोजन की व्यवस्था है। जबकि संन्यासियों के लिए सभी एकादशियों को निराहार, निर्जल व्रत की व्यवस्था है।
आज के संदर्भ में व्यक्ति के अपने कल्याण तथा समाज में उसकी उपादेयता बढ़ाने के लिए मनुष्य को देव प्रबोधिनी एकादशी जैसे महाव्रतों पर संयमित आचरण तथा मितभोजन करके अपने इष्टदेव का स्मरण-पूजन करना ही चाहिए। भले ही वह एकादशी के संबंध में पुराणोक्त व्यवस्था का पालन न कर सके। यह शास्त्रसम्मत विधान है और जो व्यक्ति शास्त्रसम्मत आचरण करता है, वह दीर्घ और सुखी जीवन जीता है।

यात्रा और ज्योतिष - कविता चैतन्य

यह सभी जानते हैं कि मई-जून में यात्राओं का दौर जोरों पर रहता है। बच्चों के स्कूल बंद होने के बाद तनावमुक्त होने के लिए लोग सपरिवार हिल स्टेशन, धार्मिक स्थल, गांवों आदि की यात्राओं का कार्यक्रम बनाते हैं। कभी-कभी यात्राओं का यह सफर मनोरंजक न होकर तनावयुक्त व दु:खद हो जाता है। परंतु शुभ समय को ध्यान रखकर मुहूर्त अनुसार यात्रा के लिए प्रस्थान किया जाए तो यात्रा मनोरंजनपूर्ण व सुखद होती है। साथ ही कुशलतापूर्वक घर में वापसी भी होती है।
यात्रा के समय मुहूर्तो में चंद्रबल, भरणी, भद्रा, योगिनी विचार, दिशाशूल आदि का विशेष ध्यान रखना श्रेयस्कर रहता है। तिथियों में षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, रिक्ता (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) को छोड़कर शेष तिथियां यात्रा में ग्राह्य है। अमृतसिद्धि या सर्वार्थसिद्धि योगों में तिथि विचार के बिना भी यात्रा की जा सकती है। नक्षत्रों में अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती नक्षत्र में यात्रा श्रेष्ठ रहती है। यात्रा में चंद्रबल शुद्धि विशेष रूप से शुभ फलदायी होती है। इसके लिए राशियों का दिशाज्ञान होना आवश्यक है। जिस दिशा की राशि में चंद्रमा का गोचर हो उसी दिशा में चंद्रमा का वास होता है। चंद्रमा सदैव यात्रा में सम्मुख दाहिने होना चाहिए। बारह राशियों में अग्नि तत्व (मेष, सिंह, धनु) राशियां पूर्व दिशा का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिए यदि चंद्रमा इन राशियों में हो तो पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा विशेष फलदायी होती है।
पृथ्वी तत्व (वृष, कन्या, मकर) राशियां दक्षिण दिशा का प्रतिनिधित्व करती हैं, इन राशियों में चंद्रमा का गोचर दक्षिण व पूर्व दिशा की यात्रा को शुभ करता है। यदि पंचक चल रहे हों तो दक्षिण दिशा की यात्रा से यथासंभव परहेज करना चाहिए। इसी प्रकार वायु (मिथुन, तुला, कुंभ) राशियां पश्चिम का नेतृत्व करती हैं। इन राशियों का चंद्रमा पश्चिम तथा दक्षिण दिशा की यात्रा को सुखद बनाता है। जल तत्व (कर्क, वृश्चिक, मीन) राशियां उत्तर दिशा का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन राशियों का चंद्रमा उत्तर तथा पश्चिम दिशा की यात्रा फलदायी करता है।
सम्मुखे सोर्थलाभाय दक्षिणो सुखसम्पद:।
पश्चिमे प्राण सन्देहो वामे चन्द्रो धनक्षय:॥

अर्थात : सम्मुख चंद्रमा प्राय: सभी दोषों को शांत करने में सक्षम होता है। दाहिने हो तो सुख और धनलाभ तथा पीठ की ओर अथवा बाएं तरफ चंद्रवास हो तो कष्ट और धनहानि होती है। जब सपरिवार यात्रा करनी हो तो परिवार के मुखिया की राशि के आधार पर चंद्रबल का निर्धारण करना चाहिए। दिशाशूल के अनुसार सोमवार, शनिवार को पूर्व, रविवार और शुक्रवार को पश्चिम, मंगलवार व बुधवार को उत्तर तथा गुरुवार को दक्षिण दिशा का दिशाशूल होता है। अत: उक्तवारों को उन दिशाओं में यात्रा नहीं करनी चाहिए। परंतु यदि यात्रा अत्यावश्यक हो तो उस दिन का होरा के समय यात्रा नहीं करनी चाहिए अर्थात जैसे रविवार को पश्चिम दिशा में यात्रा करना जरूरी है तो रविवार की होरा में यात्रा शुरू नहीं करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त रविवार को पान और घी खाकर, सोमवार को दर्पण देखकर या दूध पीकर, मंगलवार को गुड़ खाकर, बुधवार को धनिया व तिल खाकर, गुरुवार को दही खाकर, शुक्रवार को दूध पीकर तथा शनिवार को अदरक या उड़द खाकर प्रस्थान किया जा सकता है।
योगिनी का भी यात्रा में विशेष विचार किया जाता है। तिथि विशेष के आधार पर दिशाओं में योगिनियों का वास माना जाता है। योगिनी बाएं तथा पीठ पीछे होने से यात्रा शुभ होती है। प्रतिपदा तथा नवमी तिथियों को योगिनी का वास पूर्व दिशा में होता है। तृतीय व एकादशी को अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में, पंचमी व त्रयोदशी को दक्षिण में, चतुर्थी व द्वादशी को नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में, षष्ठी व चतुर्दशी को पश्चिम दिशा में, सप्तमी व पूर्णिमा को वायव्य कोण (पश्चिम-उत्तर) में, द्वितीय व दशमी को उत्तर दिशा में तथा अष्टमी व अमावस्या को ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में होता है।
इन सबके अतिरिक्त यदि किसी आकस्मिक कारणवश तुरंत यात्रा करनी पड़े तो यात्रा मुहूर्त के अनुसार करें।
जोइ स्वर चले सोई पग दीजे
भरणी भद्रा एक न लीजे।
अर्थात: आपकी जिस नासिका से श्वांस तेज निकल रही हो वही कदम पहले आगे बढ़ाएं। साथ ही मानस की यह चौपाई पढ़ें।
प्रबिसि नगर कीजे सबकाजा।
हृदय राखि कोसलपुर राजा॥
अर्थात: भगवान राम को प्रणाम करके यात्रा करें आपकी यात्रा सुखद रहेगी।

रविवार, 22 नवंबर 2009

गोल्डन मनी कैट

फेंगशुई के जानकार इसे बैंक का दर्जा देते हैं। गोल्डन कलर की यह खूबसूरत बिल्ली धन-दौलत और सुरक्षा की सूचक मानी जाती है। कहते हैं कि गोल्डन मनी कैटइसके पंजे में भाग्य को अपने पास रखने की ताकत है। चीनी व्यापारी इसे अपने व्यापार स्थल पर जरूर रखते हैं, जिससे खुशहाली आती है और भाग्य आपका साथ देता है।
विशेषज्ञों के अनुसार इसे व्यापार स्थल पर किसी ऊपरी जगह रखा जाना चाहिए। चीनी लोगों का मानना है कि रोजाना इसके पास कुछ न कुछ पैसे जरूर रखना चाहिए। बिल्ली को बुरी नजर और आत्माओं को दूर रखने वाला मानते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह अंधेरे में भी देख सकती है। विशेषज्ञों की मानें तो दौलत बढ़ाने के लिए इसे दक्षिण-पूर्व में और दिमाग को तेज करने के लिए उत्तर-पूर्व में रखिए।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

हमारे जीवन के अदृश्य सहायक - डॉ. अरुण

श्राद्ध का अर्थ है- श्रद्धा व्यक्त करना तथा तर्पण का अर्थ है - तृप्त करना। पितर, वे हैं, जो पिछला शरीर त्याग चुके हैं, लेकिन अभी अगला शरीर प्राप्त नहीं कर सके हैं। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं। हिंदू दर्शन की मान्यता है कि जब जीवात्मा स्थूल शरीर छोड़ देती है, तभी मृत्यु होती है।
अंत:करण चातुष्य (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) तथा कारण शरीर यानी भाव शरीर सहित जीवात्मा सूक्ष्म शरीर में ही रहती है, लेकिन अपनी उन्नति के लिए उसे हमेशा हमारे सहयोग की अपेक्षा रहती है। सद्भावनाएं संप्रेषित करने पर बदले में उनसे ऐसा ही भावनात्मक सहयोग प्राप्त होता है।
धर्मशास्त्रों में भी यही कहा गया है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, पुत्र, यश, बल, वैभव-सुख और धन-धान्य को प्राप्त करता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि आश्विन मास के कृष्णपक्ष भर यानी पंद्रह दिनों तक रोजाना नियमपूर्वक स्नान करके पितरों का तर्पण करे और अंतिम दिन पिंडदान श्राद्ध करे।
पितृपक्ष का महत्व इस बात में नहीं है कि हम श्राद्ध कर्म को कितनी धूमधाम से मनाते हैं। इसका वास्तविक महत्व यह है कि हम अपने पितामह आदि गुरुजनों की जीवित अवस्था में ही कितनी सेवा व आज्ञापालन करते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा नहीं करते और उनका अपमान करते हैं, बाद में उनका श्राद्ध करना निर्थक ही माना जाएगा। हां, अगर अंदर प्रायश्चित की भावना है तो उनके कोप से जरूर बचेंगे।
भारतीय ज्योतिष में पितृदोष का सबसे अधिक महत्व है। यदि घर में कोई मांगलिक कार्य नहीं हो रहे हों, रोज नई-नई आफतें आ रही हों, आदमी दीन-हीन होकर भटक रहा हो, संतान नहीं हो रही हो या संतान विकलांग पैदा हो रही हो तो इसका मुख्य कारण यह है कि उसकी कुंडली में पितृदोष है। यदि वह व्यक्ति श्रद्धा-भाव से अपने पूर्वजों के प्रति श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को विधि-विधान से पिंड श्राद्ध एवं तर्पण करता है तो पितृ उससे प्रसन्न हो जाते हैं तथा आशीर्वाद देकर जाते हैं।
श्राद्ध मीमांसा में वर्णन है कि अगर व्यक्ति के पास श्राद्ध करने के लिए कुछ भी न हो तो वह अपने दोनों हाथ से कुशा उठाकर आकाश की ओर दक्षिणमुखी होकर अपने पूर्वजों का ध्यान करके रोने लगे और जोर-जोर से आर्तभाव से कहे- ‘हे मेरे पितरों! मेरे पास कोई धन नहीं है। मैं तुम्हें इन आंसुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता’। ऐसा करने पर पितर उसके आंसुओं से ही तृप्त होकर चले जाते हैं।
श्राद्ध में ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस व्यक्ति विशेष के लिए जो वस्तुएं आप खरीद रहे हों या दान रूप में दे रहे हों, वह उनके शीघ्र ही काम आने वाली हों। ऐसा न हो कि आप रुपए खर्च करें और वे वस्तुएं लंबे समय तक बिना काम के पड़ी रहें। इसलिए वैसी ही चीजें खरीदें और लोगों को दान में दें, जो पूर्वजों को पसंद हों।
पूर्वजों को याद करने का यह पक्ष बड़ा ही अद्वितीय है, क्योंकि पितरों को हम श्रद्धा देंगे तो वे हमें शक्ति देंगे। वे हमारे अदृश्य सहायक हैं। जहां तक पितृ पक्ष में नया कार्य करने अथवा न करने का प्रश्न है तो सिर्फ मांगलिक, यज्ञोपवीत आदि कार्य बंद होते हैं, बाकी सारे शुभ कार्य नि:संकोच किए जा सकते हैं।

सर्वपितरों का श्राद्धपर्व - डॉ. शालिनी

 pitra मनुष्य तीन ऋणों को लेकर जन्म लेता है - देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देवार्चन से देव ऋण, अध्ययन से ऋषि ऋण एवं पुत्रोत्पादन व श्राद्ध कर्म से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। श्रद्धा से ही श्राद्ध है - श्रद्धया दीयते यत्र तच््रछाद्धं परिचक्षते। श्रद्धापूर्वक पितरों के लिए ब्राrाण भोजन, तिल, जल आदि से तर्पण एवं दान करने से पितृ ऋण से मुक्ति और पितरों की प्रसन्नता मिलती है।
प्रतिवर्ष महालय श्राद्ध का अनुष्ठान कर हम पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं, क्योंकि इस मास में सभी पितर पृथ्वी लोक पर आते हैं और अपने परिवारजन द्वारा प्रदान किए गए कव्य से तृप्त होकर उन्हें शुभाशीष देते हैं। महाभारत के दान-धर्म पर्व के अंतर्गत कहा गया है कि कन्या व सूर्य के मध्य पितृ लोक खाली रहता है और कन्या के सूर्य में पितर अपने सत्पुत्रों के निकट पहुंचते हैं। अत्रि के अनुसार - कन्यागते सविर्तारे यान्ति सत्सुतान्।
यही कारण है कि धर्मशास्त्र पूरे महात्म्य में श्राद्ध का विधान करता है। जो पूरे पितृ पक्ष में श्राद्ध-तर्पण करने में असमर्थ हो उसे अपने पितरों की मृत तिथि में अवश्य श्राद्ध करना चाहिए या तिथिर्यस्य मासस्य मृताहे तु प्रवर्तते। स तिथि: पितृपक्षे तु पूजनीया प्रयत्नत: ।।
संपूर्ण महालय पक्ष में यदि परिवार में किसी विघ्न के कारण पितरों की तिथि में श्राद्ध न किया जा सके, तो उनका अथवा अपने परिवार, कुल या वंश में अज्ञात मृत्यु तिथि वाले पितरों का क्षयाहिक एकोद्दिष्ट श्राद्ध अमावस्या को करना चाहिए। इससे भी संपूर्ण मास के श्राद्ध की सिद्धि होती है, इसीलिए यह श्राद्ध सर्वपितृ श्राद्ध कहलाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि सूर्य-चंद्र, दोनों जब साथ-साथ रहते हैं, वह तिथि अमावस्या है। उसमें सब साध्यगण पितृ विशेष और इंद्र आदि देवता एकत्र होते हैं। इसलिए इस दिन किए गए श्राद्ध का विशेष फल होता है। सभी महीने में अमावस्या श्राद्ध करने में असमर्थ होने पर कन्या, कुंभ और वृष के सूर्य के रहते तीनों अमावस्या में या एक अमावस्या को श्राद्ध करें।
अमावस्या का श्राद्ध पार्वण विधि से होता है, इसमें आश्विन की अमावस्या को त्रिपार्वण अर्थात पिता आदि तीन, नाना आदि तीन एवं माता आदि तीन के लिए श्राद्ध किया जाता है, जबकि अन्य अमावस्या में सपत्नीक पिता आदि तीन एवं सपत्नीक मातामह आदि तीन के लिए श्राद्ध किया जाता है। अमावस्या का श्राद्ध अपराह्न् काल में किया जाता है और जिस दिन अपराह्न् में अमावस्या हो, उस दिन श्राद्ध करना चाहिए।

बुरी नजर से बचाता है मूंगा

 बुरी नजर से बचाता है मूंगा मूंगा पहनने का प्रचलन सदियों पुराना है। यह रत्न खनिज न होकर एक कार्बनिक पदार्थ है। इसकी उत्पत्ति छोटे-छोटे समुद्री बहुपाद प्राणी कोरिलिकम से निकलने वाले द्रव्य से होती है। यह अपारदर्शकता के साथ सभी रंगों में आता है, किंतु भारतीय ज्योतिष में लाल व सफेद मूंगा का महत्व है। इसकी सतह चिकनी होती है। इसका सर्वाधिक उपयोग राशि रत्न, आभूषण एवं सुशोभित वस्तुओं में होता है। सामान्यत: इसके ऊपर लकड़ी की सतह पर पड़ने वाली आकृति दिखती है, इसे इंग्लिश में कोरल व संस्कृत में प्रवालक नाम से जाना जाता है।
मूंगा भारतीय ज्योतिष में मंगल ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। शक्ति उपासना में मूंगे का विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि इसे धारण करने से बुरी नजर नहीं लगती। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से रक्त उत्सर्जन ग्रंथियों को नियंत्रित कर नाड़ी दुर्बलता का नाश करता है।

आलस्य भगाता है माणिक - मनोज जैन

 ruby माणिक अत्यंत मूल्यवान रत्न माना जाता है। इसमें रंग की एकरूपता तथा अच्छी पारदर्शिता प्राय: दुर्लभ है। यह कुरुविंद समूह का रत्न है। यह पारभासक से पारदर्शकता के साथ लाल रंग में कत्थई-सी झांई लिए हुए होता है। इसका श्रेष्ठ रंग ‘कपोत लहुरंग’ है। इस रत्न में तिड़ालाक्ष प्रभाव व ताराछटा प्रभाव दुर्लभ है।
रंग का प्रमाण अधिकतर सभी जगह नियमित नहीं होता। इसमें एल्युमिनियम ऑक्साइड का रासायनिक गठन है तथा रंग क्रोमियम से आता है। इसे हिंदी में माणिक, इंग्लिश में रूबी और संस्कृत में माणिक्य कहते हैं। प्राकृतिक माणिक लघु तरंगामित पारजामुनी प्रकाश फेंकता है।
यदि गुलाबी रंग हो तो उसे हिंदी में ‘पादपराशा’ तथा इंग्लिश में पिंक सफायर कहा जाता है। यह रत्न अनेक राजचिन्हों तथा मशहूर आभूषणों में सुशोभित है, इसलिए इसे रत्नों का राजा भी कहा गया है।
न्यूयॉर्क के प्राकृतिक संग्रहालय में लंबतारा (100 कैरेट) और शांति माणिक (43 कैरेट) रखा हुआ है, जिसकी प्राप्ति प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुई थी। भारतीय ज्योतिष के मतानुसार में यह रत्न सूर्य ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। गर्म तासीर का होने के कारण यह जातक में आलस्य की प्रवृत्ति को दूर करता है।
ऐसा कहा जाता है कि सूर्य की लंबवत किरणों जब इस रत्न पर पड़ती हैं तो इसके अणु काफी उग्र होकर चमक पैदा करते हैं। इससे जातक को आर्थिक संपन्नता, वैभव तथा ख्याति प्राप्त होती है और रक्त से संबंधित विकार दूर होते हैं। महिलाओं को माणिक के आभूषण बेहद लुभाते हैं।

गुड़ी पड़वा और नवसंवत्सर

हिंदू पंचांग के बारह महीनों के क्रम में पहले चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वर्षभर की सभी तिथियों में इसलिए सबसे अधिक महत्व रखती है क्योंकि मान्यता के अनुसार इसी तिथि पर ब्रम्हा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। इस तिथि को प्रथम पद अर्थात स्थान मिला, इसीलिए इसे प्रतिपदा कहा गया है।
जब ब्रrा ने सृष्टि का प्रारंभ किया उस समय इसे प्रवरा तिथि सूचित किया था। जिसका अर्थ है सर्वोत्तम। इस अर्थ में यह वर्ष का सर्वोत्तम दिन है जो सिखाता है कि हम अपने जीवन में, सभी कामों में, सभी क्षेत्रों में जो भी कर्म करें, हमारा स्थान और हमारे कर्म लोक कल्याण की दृष्टि से प्रथम पद अर्थात श्रेष्ठ स्थान पर रखे जाने योग्य हो।
नवसंवत्सर क्यों : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नवसंवत्सर प्रतिपदा कहते हैं। कारण इस दिन से नए संवत्सर का प्रारंभ होता है। संवत्सर उसे कहते हैं जिसमें मासादि भलीभांति निवास करते रहे। इसका दूसरा अर्थ है बारह महीने का समय विशेष। श्रुति भी यही कहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार संवत्सर के सौर, सावन, चांद्र बार्हस्पत्य और नाक्षत्र ये पांच भेद हैं परंतु धर्म, कर्म और लोक व्यवहार में चांद्र संवत्सर की ही प्रवृति विख्यात है, जिसका प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।
सृजन, जीवन और सत्य : ब्राम्हपुराण, स्मृतिकौस्तुभ और भविष्योत्तर पुराण में नवसंवत्सर तथा प्रतिपदा के संदर्भ मिलते हैं। इसके अनुसार ब्रम्हा ने इसी दिन सृष्टि का आरंभ किया और इसी दिन विष्णु के मत्स्यावतार तथा सत्य युग का शुभारंभ भी हुआ। जरा विचार करें इस तिथि पर इन तीन संदर्भो सृष्टि आरंभ, मत्स्यावतार और सत्य युग के प्रतीक क्यों गढ़े गए? सृष्टि के आरंभ का अर्थ है सृजन का आरंभ।
प्रतीक है हम सृजन ऐसा करें जो सुखद, मनोहारी और प्रेरक हो। सृष्टि से बेहतर इसका दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। मत्स्यावतार जीवन के प्रारंभ का प्रतीक है। हमारे शास्त्रों में उल्लेखित भगवान विष्णु के दस अवतार क्रमश: मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कल्कि की कथा मानव जीवन के विकास की कथा है। जो संकेत करती है कि जीवन का प्रारंभ जल से हुआ है। जल का सुपरिचित जीव मछली है अत: मछली भगवान का पहला स्वरूप या अवतार माना गया। नववर्ष प्रतिपदा को मत्स्यावतार हुआ है जो इन्हीं संदर्भो को पुष्ट करता है। सत्य युग जीवन में सत्यव्रत के धारण का संकेत है।
वसंत का प्रभाव : किसी समय वर्ष का प्रारंभ मार्गशीर्ष मास से माना जाता था। फिर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाने लगा। शायद इसीलिए कि इसी काल में वसंत ऋतु का राज होता है। प्रकृति अपने सौंदर्य के चरम पर होती है, फाल्गुन के रंग और फूलों की सुगंध के बीच वातावरण तन-मन जीवन को प्रफुल्लित और उत्साहित रखता है। किसी नए काम को प्रारंभ करने के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है, इसीलिए शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा आगामी मासों में सद्कर्मो के संकल्प की तिथि के रूप में प्रतिष्ठित की गई।
लोकाचार व संदेश : शास्त्रों में नववर्ष प्रतिपदा मनाने के लोकाचारों का विस्तार से वर्णन है। निर्देश है इस दिन निवास स्थानों को सुंदर पताकाओं से सुशोभित करें और अंजुरी में जल लेकर भावी कर्मो के प्रति संकल्पित हों। नववर्ष प्रतिपदा एक असाधारण तिथि है जिसके धार्मिक संदर्भो को हम ग्रहण तो करें लेकिन उनके प्रतीकों के अर्थ के साथ।

महादशा में अंतरदशाएं देती हैं ज्वर - पं. पुष्कर राज


star sys ज्वर के कई भेद, उपभेद हैं। यह बीमारी सामान्य होती है किंतु परिणाम कई बार भयावह हो जाते हैं। सूर्य, चंद्र, बुध व शनि ज्वर के प्रमुख कारक ग्रह हैं। नीच के सूर्य व नीच के ही चंद्रमा की महादशा में या केतु की महादशा में बुध की अंतरदशा अथवा शनि की महादशा में राहु की अंतरदशा में बुखार भयानक रूप ले लेता है। आयुर्वेद ने ज्वर को कई तरह से वर्गीकृत किया है।
धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत, शारंगधर, काश्यप आदि ने ज्वर के प्रकारों पर विस्तृत चर्चा की है। इसके मुख्यत: तीन भेद हैं। अधिक जम्हाई का आना वात ज्वर, आंखों में जलन होना पित्त ज्वर एवं अन्न से अधिक अरुचि होना कफ ज्वर का लक्षण कहा गया है।
ज्योतिषीय कारण : गुणाकर, वराहाचार्य, श्रीपति आदि दैवज्ञों ने माना है कि सूर्य, चंद्र एवं बुध-शनि ज्वर के प्रधान रूप से कारक ग्रहों में होते हैं। नीचस्थ सूर्य व नीचस्थ चंद्र की महादशा में अथवा केतु की महादशा में बुध की अंतरदशा या शनि की महादशा में राहु की अंतरदशा हो तो जातक बुखार से जकड़ जाता है।
कब कौनसा ज्वर : ज्योतिष का मत है कि लग्नेश व षष्ठेश सूर्य युक्त हो तो जातक को ज्वर का भय होता है। षष्ठ व अष्टम में सूर्य हो या अष्टम में चंद्रमा राहु युक्त हो तो चौथिया (चार दिन के अंतराल वाला)। अष्टमेश चंद्र या राहु या केतु युक्त हो तो चौथिया ज्वर होता है। लग्न में मंगल व अष्टमेश में सूर्य हो तो दाह ज्वर होता है। चंद्रमा शीत व कफ ज्वर, बुध पित्त ज्वर व शनि वात ज्वर के कारक ग्रह हैं। इसी प्रकार राहु की महादशा में बुध की अंतरदशा भी ज्वर के लिए जिम्मेदार होती है।
अनुभूत कारण : निरंतर या आए दिन ज्वर पीड़ित रहने वाले कई जातकों की कुंडलियों में देखा गया है कि उनके राहु में बुध की जब अंतरदशा चली तो वह बुखार, टाइफाईड व अन्य ज्वरों से लगातार परेशान होता है। क्षीणकाय हो गया और आर्थिक तथा घरेलू परेशानियों से त्रस्त हो गया।
ज्योतिषीय उपचार : जातक की कुंडली व दशा-अंतरदशा पर विचार करने के बाद जिस ग्रह के कारण ज्वर हो रहा हो, उस ग्रह से संबंधित वस्तुओं का दान और मंत्र जाप करना चाहिए। जातक स्वयं करे तो बेहतर और यदि किसी कारण से स्वयं नहीं कर सके तो घर का अन्य व्यक्ति उसके नाम से दान व मंत्रों का जाप कर सकता है। कई बार इन ग्रहों के यंत्रादि धारण करने से भी बाधा से छुटकारा मिलता है। ज्वर पीड़ित के कक्ष में निरंतर गुग्गुल की धूप और संबंधित ग्रह के मंत्र की ध्वनि निश्चित ही लाभकारी होती है।

मूल नक्षत्र कैसे जानें

बालक का जन्म होने पर अभिभावक की प्रथम प्रश्न/जिज्ञासा यह रहती है कि बालक का नाम नक्षत्र क्या है तथा यह परिवार के लिए कैसा रहेगा। नक्षत्र तथा चरण के ज्ञात होने पर हमने बालक नाम एवं राशि तो जान ली, अब हमें नक्षत्र देखना है कि बालक का जन्म मूल संज्ञक नक्षत्र में तो नहीं हुआ है। 27 नक्षत्रों में अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल एवं रेवती कुल 6 नक्षत्र मूल संज्ञक (तुल्य) नक्षत्र कहलाते हैं।
इनमें भी आश्लेषा, ज्येष्ठा एवं मूल बड़े मूल तथा शेष अश्विनी, मघा एवं रेवती हल्के मूल की श्रेणी में आते हैं। इन नक्षत्रों में जन्मे बालक को सामान्यत: किसी न किसी प्रकार की कठिनाई से गुजरना पड़ता है। आरंभिक काल में स्वास्थ्य, पीड़ा, शिक्षा, आर्थिक परेशानी, माता-पिता, बंधु, परिवारजनों, वाहन से संबंधित कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसलिए मूल संज्ञक नक्षत्रों में जन्मे जातक की नक्षत्र शांति परम आवश्यक माना गया है।
अश्लेषा नक्षत्र का दोष नौ माह तक, मूल नक्षत्र का आठ वर्ष तक, ज्येष्ठा का 15 माह तक दोष रहता है। इसके पूर्व ही नक्षत्र शांति करवा लेना चाहिए। बड़े मूल नक्षत्र (अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल) में जन्मे जातक की शांति 27वें दिन पुन: उसी नक्षत्र के आने पर करवाना चाहिए तथा हल्के मूल नक्षत्र (मघा, रेवती, अश्विनी) की शांति 12वें दिन शुभ मुहूर्त में करवाना चाहिए। मूल संज्ञक नक्षत्रों के प्रभावों को तालिका से संक्षिप्त रूप से जाना जा सकता है।
तीन कन्या के बाद पुत्र या तीन पुत्रों के बाद कन्या जन्म त्रिकदोष कहलाता है। इसकी भी शांति करवाना चाहिए। नक्षत्र का नाम सुनकर भयभीत या डरने की आवश्यकता नहीं है, यह सामान्य प्रक्रिया है। ईश्वर के हाथ में है, मनुष्य के हाथ में नहीं।
जिस प्रकार बारिश से बचने के लिए छाता/रेनकोट का उपयोग करते हैं तथा उसके प्रभाव से बचा जा सकता है। ठीक उसी प्रकार नक्षत्र शांति उपाय कर नक्षत्रों के कुप्रभाव से बचा जा सकता है तथा अच्छे फलों को प्राप्त किया जा सकता है।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म भी मूल नक्षत्र में हुआ था। मूल संज्ञक नक्षत्रों में जन्मे बालक किसी क्षेत्र विशेष में पारंगत होते हैं। किसी कार्य को करने की उनमें धुन सवार होती है। केवल उन्हें सही मार्गदर्शन और प्रेरणा देनेवाले की आवश्कता होती है।

स्वस्तिक से पाएं सकारात्मक ऊर्जा - बाबूलाल जोशी

swastik मंगल प्रसंगों के अवसर पर पूजा स्थान तथा दरवाजे की चौखट और प्रमुख दरवाजे के आसपास स्वस्तिक चिह्न् बनाने की परंपरा है। वे स्वस्तिक कतई परिणाम नहीं देते, जिनका संबंध प्लास्टिक, लोहा, स्टील या लकड़ी से हो।
सोना, चांदी, तांबा अथवा पंचधातु से बने स्वस्तिक प्राण प्रतिष्ठित करवाकर चौखट पर लगवाने से सुखद परिणाम देते हैं, जबकि रोली-हल्दी-सिंदूर से बनाए गए स्वस्तिक आत्मसंतुष्टि ही देते हैं। अशांति दूर करने तथा पारिवारिक प्रगति के लिए स्वस्तिक यंत्र रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य तथा दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी श्रीयंत्र के साथ लगाना लाभदायक है।
अकेला स्वस्तिक यंत्र ही एक लाख बोविस घनात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम है। वास्तुदोष के निवारण में भी चीनी कछुआ ७00 बोविस भर देने की क्षमता रखता है, जबकि गणोश की प्रतिमा और उसका वैकल्पिक स्वस्तिक आकार एक लाख बोविस की समानता रहने से प्रत्येक घर में स्थापना वास्तु के कई दोषों का निराकरण करने की शक्ति प्रदान करता है।
गाय के दूध, गाय के दूध से बने हुए दही और घी, गोनीत, गोबर, जिसे पंचगव्य कहा जाता है, को समानुपात से गंगा जल के साथ मिलाकर आम अथवा अशोक के पत्ते से घर तथा व्यावसायिक केंद्रों पर प्रतिदिन छिटकाव करने से ऋणात्मक ऊर्जा का संहार होता है। तुलसी के पौधे के समीप शुद्ध घी का दीपक प्रतिदिन लगाने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।
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