गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

सोमवार को शिवजी का दिन क्यों हैं?

जीवन की हर समस्या का शिवजी की पूजा आसानी से हल हो सकती है। इनकी पूजा के लिए कोई विशेष दिन या मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी कई विद्वानों द्वारा शिव पूजा के लिए सोमवार का दिन श्रेष्ठ माना गया है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सोमवार चंद्र देव का दिन माना गया है। कुंडली में चंद्र का महत्वपूर्ण स्थान है। चंद्र के आधार पर ही हमारी जन्म राशि का निर्धारण होता है। यदि जन्म कुंडली में चंद्र से संबंधित कोई दोष हो तो सोमवार के दिन शिवजी के पूजन से वह दोष शांत हो जाता है। शिव को शशिधर भी कहा जाता है क्योंकि शिवजी ने चंद्र को अपने मस्तक पर धारण कर रखा है।

शास्त्रों के अनुसार सभी देवी-देवताओं की पूजा के लिए अलग-अलग विशेष दिन निर्धारित किए गए हैं। सोम शब्द का अर्थ होता है चंद्रमा। चंद्रमा को चंचल ग्रह माना गया है, साथ ही यह हमारे मन का नियंत्रक भी है। चंद्र को शिव ने मस्तक पर स्थान दिया है अर्थात् शिव सच्चे मन से उनकी आराधना करने वाले श्रद्धालु को अपने मस्तक पर चंद्र के समान सुशोभित करते हैं। इस बात का मतलब यही है वे भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। भगवान अपने भक्तों के अधिन माने गए हैं।

शिवजी का सोमवार से सीधा संबंध है। सोम शब्द में ऊँ शब्द भी विद्यमान है। ऊँ शिवजी का ही प्रतीक है। सोमवार, चंद्रमा और शिवजी इन तीनों का आपस में गहरा संबंध है। इसी वजह से प्राचीनकाल से ही सोमवार को शिवजी का दिन माना जाता है।

गीता प्रेस की स्थापना कैसे हुई?




इस देश में संत महात्माओं की कमी नहीं, शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत-महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएं निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार की जगह नहीं ले सकते। शायद आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नामका एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके।

आज `गीता प्रेस गोरखपुर' का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित नहीं होगा।

करीब 90 साल पहले यानी 1923 में स्थापित गीता प्रेस द्वारा अब तक 45.45 करोड़ से भी अधिक प्रतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। इनमें 8.10 करोड़ भगवद्गीता और 7.5 करोड़ रामचरित मानस की प्रतियां हैं। गीता प्रेस में प्रकाशित महिला और बालोपयोगी साहित्य की 10.30 करोड़ प्रतियों पुस्तकों की बिक्री हो चुकी है।

गीता प्रेस ने 2008-09 में 32 करोड़ रुपये मूल्य की किताबों की बिक्री की। यह आंकड़ा इससे पिछले साल की तुलना में 2.5 करोड़ रुपये ज्यादा है। बीते वित्त वर्ष में गीता प्रेस ने पुस्तकों की छपाई के लिए 4,500 टन कागज का इस्तेमाल किया।

गीता प्रेस की लोकप्रिय पत्रिका कल्याण की हर माह 2.30 लाख प्रतियां बिकती हैं। बिक्री के पहले बताए गए आंकड़ों में कल्याण की बिक्री शामिल नहीं है। गीता प्रेस की पुस्तकों की मांग इतनी ज्यादा है कि यह प्रकाशन हाउस मांग पूरी नहीं कर पा रहा है। औद्योगिक रूप से पिछडे¸ पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस प्रकाशन गृह से हर साल 1.75 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं।

गीता पे्रस के प्रोडक्शन मैनेजर लालमणि तिवारी कहते हैं, हम हर रोज 50,000 से ज्यादा किताबें बेचते हैं। दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की इतनी पुस्तकें नहीं बिकती हैं। धार्मिक किताबों में आज की तारीख में सबसे ज्यादा मांग रामचरित मानस की है। अग्रवाल ने कहा कि हमारे कुल कारोबार में 35 फीसदी योगदान रामचरित मानस का है। इसके बाद 20 से 25 प्रतिशत का योगदान भगवद्गीता की बिक्री का है।

इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है। भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949 में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ।

राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

उस समय देश गुलामी की जंजीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादाजी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए '1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए और 1938 में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। विक्रम संवत 1971 में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयनका जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयनका जी व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई 1922 में गीता प्रेस का स्थापना की गई।

1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था। सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़लाजी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद्विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी को कल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया।

इसके बाद भाई जी ने मुंबई पहुँचकर अपने मित्र और धार्मिक पुस्तकों के उस समय के एक मात्र प्रकाशक खेमराज श्री कृष्णदास के मालिक कृष्णदास जी से `कल्याण' के प्रकाशन की योजना पर चर्चा की। इस पर उन्होंने भाई जी से कहा आप इसके लिए सामग्री एकत्रित करें इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी मैं सम्हाल लूंगा। इसके बाद अगस्त 1955 में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। कहना न होगा कि इसके बाद `कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय ही नहीं बल्कि एक संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित हो गई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। `कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त 1926 से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगी।

भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रुप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। १९३६ में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु -जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरु जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरु जी को दे दी।

१९३८ में जब राजस्तथान में भयंकर अकाल पड़ा तो भाई जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने २५ हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाई जी ने अपनी पुस्तक `सिनेमा मनोरंजन या विनाश' में दे दी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने `विवाह में दहेज' जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने `नारी शिक्षा' के नाम से और शिक्षा-पध्दति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाई जी ने भरपूर योगदान दिया। भाई जी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है। गीता प्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा।

अंग्रेजों के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर पेडले ने उन्हें `राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन भाई जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने `राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया।

देश की स्वाधीनता के बाद डॉ, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

२२ मार्च १९७१ को भाई जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

रामचरित मानस का पाठ क्यों?

श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचा एक महाकाव्य है। श्री रामचरित मानस भारतीय संस्कृति मे एक विशेष स्थान रखती है। उत्तर भारत में रामायण के रूप में कई लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। श्री राम चरित मानस में श्री राम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है जब कि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। शरद नवरात्रि में इस के सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है।

गीताप्रेस गोरखपुर के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को २ वर्ष ७ माह २६ दिन का समय लगा था और संवत् १६३३ (१५७६ ईस्वी) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन उसे पूर्ण किया था. इस महाकाव्य की भाषा अवधी है जो कि हिंदी की ही एक शाखा है। रामचरितमानस को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। रामचरितमानस को सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसी कृत रामायण' भी कहा जाता है।

सभी विद्वानों द्वारा श्रीराम की जीवनगाथा श्रीरामचरित मानस पढऩे की सलाह दी जाती है। श्रीरामचरित मानस में जीवन प्रबंधन से जुड़े अमूल्य सूत्र हैं। राम का जीवन इस बात की प्रेरणा देता है कि आप समाज में कैसे रहें?
श्रीराम का संपूर्ण जीवन हमें आदर्श जीवन जीने के सूत्र ही बताता है।

श्रीराम के चरित्र की कुछ ही बातों को जीवन में उतार लिया जाए तो कोई भी सामान्य व्यक्ति भी महान बन सकता है। रामायण में वह सभी बातों का समावेश हैं जो हमें परिवार में रहना सिखाती हैं, समाज में रहना सिखाती है। रामायण का सरल रूप है गोस्वामी तुसलीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस।

तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस को इतना सरल रूप में लिखा है कि आसानी से सभी को समझ आ जाती है। आज के युग में सभी को उच्च जीवन जीने के लिए सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है। बस यही मार्गदर्शन श्रीराम के जीवन से प्राप्त किया जा सकता है।

जिस प्रकार श्रीराम पुत्र का कर्तव्य निभाते हैं ठीक उसी तरह आज सभी संतानों को अपने-अपने माता-पिता की हर बात को मानना चाहिए। जिस प्रकार उन्होंने पत्नी सीता के साथ जीवन बिताया वह इस बात की प्रेरणा देता है कि आज के युग में पति-पत्नी को किस प्रकार रहना चाहिए? किसी भी विषम परिस्थिति में पति-पत्नी को एक-दूसरे का साथ बिल्कुल नहीं छोडऩा चाहिए तभी हर समस्या का हल आसानी से निकाला जा सकता है।

वहीं श्रीरामचरित मानस में भाइयों में कैसा प्रेम रहना चाहिए भी बताया गया है। मित्रता के संबंध में रामायण में कई प्रसंग दिए गए है जो आदर्श मित्रता की मिसाल है। ऐसे ही हमारे जीवन से जुड़े हर रिश्ते की मर्यादा, अधिकार और कर्तव्य आदि सभी बातों की जानकारी के लिए हमें श्रीरामचरित मानस पढऩे की सलाह दी जाती है।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

लड़कियां बिंदी क्यों लगाती हैं?


लड़कियों के माथे पर चमकती बिंदी उनकी सुंदरता में चार चांद लगा देती है। बिंदी स्त्रियों के श्रंगार में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह उनके 16 श्रंगार में से एक है। बिंदी का महत्व केवल सौंदर्य बढ़ाने वाले श्रंगार तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्य लाभ भी हैं।

किसी भी लड़की के माथे पर चम-चम चमकती बिंदी किसी का भी मन बड़ी आसानी से मोह लेती है। कोई भी इसके आकर्षण से बच नहीं पाता। लड़कियां इसका उपयोग सुंदरता बढ़ाने के उद्देश्य से करती हैं और विवाहित महिलाओं के लिए यह सुहाग की निशानी मानी जाती है। हिंदू धर्म में शादी के बाद हर स्त्री को माथे पर लाल बिंदी लगाना आवश्यक परंपरा माना गया है।

बिंदी का संबंध हमारे मन से भी जुड़ा हुआ है। योग शास्त्र के अनुसार जहां बिंदी लगाई जाती है वहीं आज्ञा चक्र स्थित होता है। यह चक्र हमारे मन को नियंत्रित करता है। हम जब भी ध्यान लगाते हैं तब हमारा ध्यान यहीं केंद्रित होता है। यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना गया है। मन को एकाग्र करने के लिए इसी चक्र पर दबाव दिया जाता है। लड़कियां बिंदी इसी स्थान पर लगाती है।

बिंदी लगाने की परंपरा आज्ञा चक्र पर दबाव बनाने के लिए प्रारंभ की गई ताकि मन एकाग्र रहे। महिलाओं का मन अति चंचल होता है, अत: उनके मन को नियंत्रित और स्थिर रखने के लिए यह बिंदी बहुत कारगर उपाय है। इससे उनका मन शांत और एकाग्र रहता है।

क्या आपकी शादी अमीर लड़की से होगी...?


शादी एक ऐसा रिश्ता जिससे लड़के और लड़की के साथ-साथ दोनों के परिवारों का जीवन बदल जाता है। आज के दौर में कई लोग ऐसे हैं जो शादी को एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिससे वे अपने परिवार की गरीबी दूर कर सकते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे लगातार प्रयासरत रहते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंडली में कुछ योग ऐसे होते हैं जो बता देते हैं कि लड़के की शादी किसी अमीर घर में होगी या नहीं...
वे योग इस प्रकार है-
-चतुर्थेश या द्वितीयेश सप्तम हो तथा उस पर शुक्र की दृष्टि या शुक्र साथ में हो।
- सप्तमेश एवं धनेश ईशभावस्थ हो या एक राशि पर हो तथा शुक्र द्वारा दृष्ट हो।
-चंद्रमा सप्तमेश हो या चंद्रमा धन भाव में हो।
-द्वितीय स्थान का स्वामी सप्तम में बैठा हो और उस पर शुक्र की दृष्टि पड़ रही हो।
-चतुर्थ स्थान का स्वामी सप्तम में तथा सप्तम का स्वामी चतुर्थ में हो तो ससुराल से लाभ मिलता है।
- यदि भाग्य स्थान प्रबल है तो भी किसी अमीर लड़की से विवाह के योग बनते हैं।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

दीपावली पूजन विधि


दीपावली पूजन विधि

कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इसे रोशनी का पर्व भी कहा जाता है।

कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। आज के दिन व्यापारी अपने बही खाते बदलते है तथा लाभ हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं। दीपावली पर जुआ खेलने की भी प्रथा हैं। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर में भाग्य की परीक्षा करना है। लोग जुआ खेलकर यह पता लगाते हैं कि उनका पूरा साल कैसा रहेगा।

पूजन विधानः दीपावली पर माँ लक्ष्मी व गणेश के साथ सरस्वती मैया की भी पूजा की जाती है। भारत मे दीपावली परम्प रम्पराओं का त्यौंहार है। पूरी परम्परा व श्रद्धा के साथ दीपावली का पूजन किया जाता है। इस दिन लक्ष्मी पूजन में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र की पूजा की जाती है। इसी तरह लक्ष्मी जी का पाना भी बाजार में मिलता है जिसकी परम्परागत पूजा की जानी अनिवार्य है। गणेश पूजन के बिना कोई भी पूजन अधूरा होता है इसलिए लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन भी किया जाता है। सरस्वती की पूजा का कारण यह है कि धन व सिद्धि के साथ ज्ञान भी पूजनीय है इसलिए ज्ञान की पूजा के लिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।

इस दिन धन व लक्ष्मी की पूजा के रूप में लोग लक्ष्मी पूजा में नोटों की गड्डी व चाँदी के सिक्के भी रखते हैं। इस दिन रंगोली सजाकर माँ लक्ष्मी को खुश किया जाता है। इस दिन धन के देवता कुबेर, इन्द्र देव तथा समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान की भी पूजा की जाती है। तथा रंगोली सफेद व लाल मिट्टी से बनाकर व रंग बिरंगे रंगों से सजाकर बनाई जाती है।

विधिः दीपावली के दिन दीपकों की पूजा का विशेष महत्व हैं। इसके लिए दो थालों में दीपक रखें। छः चौमुखे दीपक दोनो थालों में रखें। छब्बीस छोटे दीपक भी दोनो थालों में सजायें। इन सब दीपको को प्रज्जवलित करके जल, रोली, खील बताशे, चावल, गुड, अबीर, गुलाल, धूप, आदि से पूजन करें और टीका लगावें। व्यापारी लोग दुकान की गद्दी पर गणेश लक्ष्मी की प्रतिमा रखकर पूजा करें। इसके बाद घर आकर पूजन करें। पहले पुरूष फिर स्त्रियाँ पूजन करें। स्त्रियाँ चावलों का बायना निकालकर कर उस रूपये रखकर अपनी सास के चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें तथा आशीवार्द प्राप्त करें। पूजा करने के बाद दीपकों को घर में जगह-जगह पर रखें। एक चौमुखा, छः छोटे दीपक गणेश लक्ष्मीजी के पास रख दें। चौमुखा दीपक का काजल सब बडे बुढे बच्चे अपनी आँखो में डालें।

दीपावली पूजन कैसे करें

प्रातः स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

अब निम्न संकल्प से दिनभर उपवास रहें-

मम सर्वापच्छांतिपूर्वकदीर्घायुष्यबलपुष्टिनैरुज्यादि-

सकलशुभफल प्राप्त्यर्थं

गजतुरगरथराज्यैश्वर्यादिसकलसम्पदामुत्तरोत्तराभिवृद्ध्‌यर्थं

इंद्रकुबेरसहितश्रीलक्ष्मीपूजनं करिष्ये।

संध्या के समय पुनः स्नान करें।

लक्ष्मीजी के स्वागत की तैयारी में घर की सफाई करके दीवार को चूने अथवा गेरू से पोतकर लक्ष्मीजी का चित्र बनाएं। (लक्ष्मीजी का छायाचित्र भी लगाया जा सकता है।)

भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, कदली फल, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाएं।

लक्ष्मीजी के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर मौली बाँधें।

इस पर गणेशजी की मिट्टी की मूर्ति स्थापित करें।

फिर गणेशजी को तिलक कर पूजा करें।

अब चौकी पर छः चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखें।

इनमें तेल-बत्ती डालकर जलाएं।

फिर जल, मौली, चावल, फल, गुढ़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करें।

पूजा पहले पुरुष तथा बाद में स्त्रियां करें।

पूजा के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें।

एक छोटा तथा एक चौमुखा दीपक रखकर निम्न मंत्र से लक्ष्मीजी का पूजन करें-

नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरेः प्रिया।

या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात्वदर्चनात॥

इस मंत्र से इंद्र का ध्यान करें-

ऐरावतसमारूढो वज्रहस्तो महाबलः।

शतयज्ञाधिपो देवस्तमा इंद्राय ते नमः॥

इस मंत्र से कुबेर का ध्यान करें-

धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च।

भवंतु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पदः॥

इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेशजी तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें।

तत्पश्चात इच्छानुसार घर की बहू-बेटियों को आशीष और उपहार दें।

लक्ष्मी पूजन रात के बारह बजे करने का विशेष महत्व है।

इसके लिए एक पाट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक जोड़ी लक्ष्मी तथा गणेशजी की मूर्ति रखें। समीप ही एक सौ एक रुपए, सवा सेर चावल, गुढ़, चार केले, मूली, हरी ग्वार की फली तथा पाँच लड्डू रखकर लक्ष्मी-गणेश का पूजन करें।

उन्हें लड्डुओं से भोग लगाएँ।

दीपकों का काजल सभी स्त्री-पुरुष आँखों में लगाएं।

फिर रात्रि जागरण कर गोपाल सहस्रनाम पाठ करें।

इस दिन घर में बिल्ली आए तो उसे भगाएँ नहीं।

बड़े-बुजुर्गों के चरणों की वंदना करें।

व्यावसायिक प्रतिष्ठान, गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करें।

रात को बारह बजे दीपावली पूजन के उपरान्त चूने या गेरू में रुई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल्ल, लोढ़ा तथा छाज (सूप) पर कंकू से तिलक करें। (हालांकि आजकल घरों मे ये सभी चीजें मौजूद नहीं है लेकिन भारत के गाँवों में और छोटे कस्बों में आज भी इन सभी चीजों का विशेष महत्व है क्योंकि जीवन और भोजन का आधार ये ही हैं)

दूसरे दिन प्रातःकाल चार बजे उठकर पुराने छाज में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाते समय कहें 'लक्ष्मी-लक्ष्मी आओ, दरिद्र-दरिद्र जाओ'।

लक्ष्मी पूजन के बाद अपने घर के तुलसी के गमले में, पौधों के गमलों में घर के आसपास मौजूद पेड़ के पास दीपक रखें और अपने पड़ोसियों के घर भी दीपक रखकर आएं।

मंत्र-पुष्पांजलि :

( अपने हाथों में पुष्प लेकर निम्न मंत्रों को बोलें) :-

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्‌ ।

तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।

स मे कामान्‌ कामकामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु ॥

कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ।

ॐ महालक्ष्म्यै नमः, मंत्रपुष्पांजलिं समर्पयामि ।

(हाथ में लिए फूल महालक्ष्मी पर चढ़ा दें।)

प्रदक्षिणा करें, साष्टांग प्रणाम करें, अब हाथ जोड़कर निम्न क्षमा प्रार्थना बोलें :-

क्षमा प्रार्थना :

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्‌ ॥

पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरि ॥

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।

यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वम्‌ मम देवदेव ।

पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः ।

त्राहि माम्‌ परमेशानि सर्वपापहरा भव ॥

अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।

दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥

पूजन समर्पण :

हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र बोलें :-

'ॐ अनेन यथाशक्ति अर्चनेन श्री महालक्ष्मीः प्रसीदतुः'

(जल छोड़ दें, प्रणाम करें)

विसर्जन :

अब हाथ में अक्षत लें (गणेश एवं महालक्ष्मी की प्रतिमा को छोड़कर अन्य सभी) प्रतिष्ठित देवताओं को अक्षत छोड़ते हुए निम्न मंत्र से विसर्जन कर्म करें :-

यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्‌ ।

इष्टकामसमृद्धयर्थं पुनर्अपि पुनरागमनाय च ॥

ॐ आनंद ! ॐ आनंद !! ॐ आनंद !!!

लक्ष्मीजी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।

तुमको निसदिन सेवत हर-विष्णु-धाता ॥ॐ जय...

उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता ।

सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥ॐ जय...

तुम पाताल-निरंजनि, सुख-सम्पत्ति-दाता ।

जोकोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि-धन पाता ॥ॐ जय...

तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता ।

कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता ॥ॐ जय...

जिस घर तुम रहती, तहँ सब सद्गुण आता ।

सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥ॐ जय...

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।

खान-पान का वैभव सब तुमसे आता ॥ॐ जय...

शुभ-गुण-मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता ।

रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहिं पाता ॥ॐ जय...

महालक्ष्मीजी की आरती, जो कई नर गाता ।

उर आनन्द समाता, पाप शमन हो जाता ॥ॐ जय...

(आरती करके शीतलीकरण हेतु जल छोड़ें एवं स्वयं आरती लें, पूजा में सम्मिलित सभी लोगों को आरती दें फिर हाथ धो लें।)

परमात्मा की पूजा में सबसे ज्यादा महत्व है भाव का, किसी भी शास्त्र या धार्मिक पुस्तक में पूजा के साथ धन-संपत्ति को नहीं जो़ड़ा गया है। इस श्लोक में पूजा के महत्व को दर्शाया गया है-

'पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्यु पहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥'

पूज्य पांडुरंग शास्त्री अठवलेजी महाराज ने इस श्लोक की व्याख्या इस तरह से की है

'पत्र, पुष्प, फल या जल जो मुझे (ईश्वर को) भक्तिपूर्वक अर्पण करता है, उस शुद्ध चित्त वाले भक्त के अर्पण किए हुए पदार्थ को मैं ग्रहण करता हूँ।'

भावना से अर्पण की हुई अल्प वस्तु को भी भगवान सहर्ष स्वीकार करते हैं। पूजा में वस्तु का नहीं, भाव का महत्व है।

परंतु मानव जब इतनी भावावस्था में न रहकर विचारशील जागृत भूमिका पर होता है, तब भी उसे लगता है कि प्रभु पर केवल पत्र, पुष्प, फल या जल चढ़ाना सच्चा पूजन नहीं है। ये सभी तो सच्चे पूजन में क्या-क्या होना चाहिए, यह समझाने वाले प्रतीक हैं।

पत्र यानी पत्ता। भगवान भोग के नहीं, भाव के भूखे हैं। भगवान शिवजी बिल्व पत्र से प्रसन्न होते हैं, गणपति दूर्वा को स्नेह से स्वीकारते हैं और तुलसी नारायण-प्रिया हैं! अल्प मूल्य की वस्तुएं भी हृदयपूर्वक भगवद् चरणों में अर्पण की जाए तो वे अमूल्य बन जाती हैं। पूजा हृदयपूर्वक होनी चाहिए, ऐसा सूचित करने के लिए ही तो नागवल्ली के हृदयाकार पत्ते का पूजा सामग्री में समावेश नहीं किया गया होगा न!

पत्र यानी वेद-ज्ञान, ऐसा अर्थ तो गीताकार ने खुद ही 'छन्दांसि यस्य पर्णानि' कहकर किया है। भगवान को कुछ दिया जाए वह ज्ञानपूर्वक, समझपूर्वक या वेदशास्त्र की आज्ञानुसार दिया जाए, ऐसा यहां अपेक्षित है। संक्षेप में पूजन के पीछे का अपेक्षित मंत्र ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। मंत्रशून्य पूजा केवल एक बाह्य यांत्रिक क्रिया बनी रहती है, जिसकी नीरसता ऊब निर्माण करके मानव को थका देती है। इतना ही नहीं, आगे चलकर इस पूजाकांड के लिए मानवके मन में एक प्रकार की अरुचि भी निर्माण होती है।

रविवार, 12 सितंबर 2010

गुरु ग्रंथ साहिब पढ़कर खुश हुआ बादशाह अकबर

सिक्खों के पांचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया। उस समय मुगलकाल का दौर था और अकबर की बादशाहत थी। अर्जुनदेवजी से ईष्र्या रखने वाले लोगों ने बादशाह अकबर को गुरुदेव और गुरु ग्रंथ के खिलाफ भड़काया और कहा कि गुरुग्रंथ साहिब में हिंदू और मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। जिससे राज्य में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो सकता है।

अकबर ने यह सारी बातें सुनकर तुरंत ही गुरुदेव से ग्रंथ साहिब मंगवाया।

गुरुदेव को बादशाह का संदेश मिलने पर उन्होंने अपने प्रिय बुड्ढाजी को गुरुग्रंथ के साथ अकबर के पास भेजा। अकबर ने बुड्ढाजी से ग्रंथ साहिब के संबंध मे सुनी सारी बातें कह सुनाई। बुड्ढाजी ने बादशाह से कहा आप खुद ग्रंथ साहिब को कही से भी खोलकर पढ़ लें। आपकी सारी शंकाओं का समाधान हो जाएगा।

बादशाह अकबर ने ग्रंथ साहिब के पन्ने पलटना शुरू किए, एक पन्ने पर राग रामकली में लिखा पद देखा-
कोई बोलै राम राम, कोई खुदाई।
कोई सेवै गुसइयां, कोई अलाहि॥
कारण करण करीम।
किरपा धारि रहीम॥
कोई न्हावै तीरथि, कोई हज जाई।
कोई करै पूजा, कोई सिरु निवाई॥
कोई पढ़ै वेद, कोई कतेब।
कोई औढ़ै नील कोई सुपेद॥
कोई कहै तुरुक, कोई कहै हिंदू।
कोई बांछै भिसतु, कोई सुरगिंदू॥
कहु नानक जिति हुकमु पछाना।
प्रभु साहिब का तिनि भेदु न जाना॥

यह पद पढ़कर बादशाह अकबर की खुशी का ठिकाना ना रहा और उसने देखा पूरे ग्रंथ में इस तरह की कई पंक्तियां हैं। इसके बाद बादशाह अकबर ग्रंथ साहिब से इतने प्रभावित हुए कि वे खुद गुरु अर्जुनदेवजी से मिलने अमृतसर श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए।

अकबर ने हरमंदिर साहिब के दर्शन कर ५१ अशर्फियां चढ़ाई। अब वे गुरुदेव से मिलने पहुंचे। अकबर गुरुदेव से मिलकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने गुरुजी को कोई जागीर देने की इच्छा जताई।

उस समय पंजाब में किसानों की फसल अच्छी नहीं हुई थी और वे बादशाह अकबर का लगान चुकाने में असमर्थ थे। बस गुरुदेव ने किसानों को उस लगान से मुक्त करने की बात बादशाह के सामने रखी। मुगल बादशाह कभी लगान नहीं छोड़ते थे परंतु गुरुदेव की बात मानकर अकबर ने किसानों का लगान माफ कर दिया। इस बात से बादशाह अकबर के मन में गुरुदेव के प्रति आस्था और बढ़ गई।

टोटके : क्या आप चाहते हैं लहलहाते बाल

भागदौड़ भरी जिंदगी और अव्यवस्थित दिनचर्या के कारण युवाओं को बहुत सी स्वास्थ्यगत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अधिकतर युवाओं में एक समस्या बहुत मिलती-जुलती है, कम उम्र में ही बाल झड़ने की।

तंत्र शास्त्र में कई ऐसे टोटके हैं जिसके जरिए हम खुबसूरत बाल पा सकते हैं, बालों का झड़ना रोक सकते हैं।

अगर आपके बाल बहुत ज्यादा झड़ते हैं तो एक प्रयोग हम आपको बता रहे हैं। यह सिद्ध प्रयोग है और इसके करने से निश्चित ही आपको लाभ भी मिलेगा।

बाजार से एक मोती शंख खरीद लें। एक दिन पहले इसमें साफ पानी भरकर रख लें। इस पानी में बाहरी धूल-मिट्टी न लगने पाए। अगले दिन इस पानी को अपने बालों में तेल की तरह लगाएं और सूखने दें। पानी लगाते समय इस मंत्र का जाप करें :

।। ऊँ ह्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ऊँ।।

इसके बाद अपना सिर धो लीजिए। थोड़े दिन यह प्रयोग करने से ही आपको अपने बालों में फर्क महसूस होने लगेगा।

भगवान कृष्ण का महानिर्वाण


धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति फेर दी।

एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा।

इस घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के श्राप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया।

सफलता के नशे में माता-पिता को मत भूलो

राजा ज्ञानसेन के दरबार में प्राय: शास्त्रार्थ हुआ करता था। शास्त्रार्थ में जो विजयी होता, ज्ञानसेन उसे धन और मान से उपकृत करते। ज्ञान की ऐसी प्रतिस्पर्धा और फिर श्रेष्ठ ज्ञानी उपलब्धि में राजा ज्ञानसेन को आनंद की अनुभूति होती थी।

एक दिन ज्ञान सेन के दरबार में शास्त्रार्थ चल रहा था। उस शास्त्रार्थ में विद्वान भारवि विजेता घोषित किए गए। राजा ज्ञानसेन ने उन्हें हाथी पर बैठाया और स्वयं चंवर डुलाते हुए उनके घर तक ले गए। भारवि जब ऐसे बड़े सम्मान के साथ घर पहुंचे तो उनके माता-पिता की खुशी का ठीकाना न रहा। घर लौटकर भारवि ने सर्वप्रथम अपनी माता को प्रणाम किया किंतु पिता की ओर उपेक्षा भरा अभिवादन मात्र किया। माता को यह उचित नहीं लगा। उन्होंने भारवि को साष्टांग दंडवत के लिए इशारा किया तो उन्होंने बड़े बेमन से इसका निर्वाह किया। पिता ने भी अनिच्छा से चिरंजीवी रहो कह दिया।

बात समाप्त हो गई किंतु माता-पिता खिन्न बने रहे। उन्हें वैसी प्रसन्नता न थी जैसी होना चाहिए थी। कारण भी स्पष्ट था। कारण भी स्पष्ट था। किसी बड़ी उपलब्धि को अर्जित करने पर संतान जिस विनम्रता के भाव से माता-पिता को नमन करती हैं उसका भारवि में सर्वथा अभाव था। उन्हें तो राजा द्वारा हाथी पर बैठाकर चंवर डुलाते हुए घर तक लाने का अहंकार था। इस अहंकार में उन्होंने शिष्टाचार व विनम्रता को भुला दिया था।

थोड़े दिनों तक माता-पिता की खिन्नता देखने के बाद भारवि माता से कारण पूछने गए। माता बोलीं- विजयी होकर लौटने के पीछे तुम्हारे पिता की कठोर साधना को तुम भुल गए। शास्त्रार्थ के दसों दिन उन्होंने मात्र जल लेकर तुम्हारी सफलता के लिए उपवार किया और उससे पूर्व पढ़ाने में कितना श्रम किया। यह तुम्हें याद ही न रहा। भारवि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने माता-पिता से क्षमा मांगी।

वस्तुत: सफलता कितनी ही बड़ी क्यों ना हो ङ्क्षकतु उसके मूल में माता-पिता के स्नेह एवं परिश्रम को भुलाना नहीं चाहिए। उनसे सदैव विनम्र बने रहना चाहिए क्योंकि विनम्रता से ही ज्ञान शोभा पाता है ।

कैसे बनाएं बच्चों को आज्ञाकारी?

आधुनिक युग में बच्चों को अच्छे संस्कार देना कठिन होता जा रहा है। घरों में हावी होता आधुनिकवाद हमारी नैतिक शिक्षा से अलग जा रहा है। बच्चे अनियमित दिनचर्या, असंयमित व्यवहार कर रहे हैं। माता-पिता को सम्मान, बड़ों का कहना मानना या छोटों को प्यार करना लगभग हमारे परिवारों से दूर जा रहा है।

कई दम्पति बच्चों को ऊंची शिक्षा तो दिलवा रहे हैं लेकिन बच्चों के व्यवहार से खुद ही दु:खी भी हैं। संस्कारों की कमी, बड़ों का कहना न मानना, उम्र के मुताबिक व्यवहार न होना बच्चों में आम समस्या है। इस समस्या का अध्यात्मिक समाधान भी हमारे शास्त्रों में दिया गया है। कुछ छोटे-छोटे उपाय हैं जो आपके बच्चों को संस्कारवान बनाने में मदद करेंगे।

अगर बच्चे संस्कार भूल रहे हैं, असभ्य हो रहे हैं या फिर आपके कहने में नहीं है तो यह उपाय किया जा सकता है:--

सूर्योदय
से पूर्व जागकर नित्यकर्मों से निवृत्त होने के पश्चात, पूर्व दिशा की और मुख करके बैठें।
साधना के लिये लिये श्वेत कम्बल का आसन बिछाएं, तथा स्वयं भी स्वेत वस्त्र पहनें।
भुवन भास्कर का मानसिक ध्यान करते हुए श्वेत पुस्प अर्पित करें।
पंचोपचार एवं धूप ध्यान के पश्चात १०८ बार निम्र मंत्र का जप करें भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमही, तन्नो सूर्य: प्रचोदयात।
मंत्र जप के पश्चात उगते हुए सूर्यदेव को जल चढ़ाएं एवं संतान की सद्बुद्धि के लिये प्रार्थना करें।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:

मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।

16 संस्कारों में लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र

हिंदू धर्म में किए जाने वाले 16 संस्कार केवल कर्मकांड या रस्में नहीं हैं। इनमें जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छुपे हैं। आज के भागदौड़ भरे जीवन में ये सूत्र हमें जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास को आगे बढ़ाते हैं। हमें इन संस्कारों में खुद के वैवाहिक, विद्यार्थी और व्यवसायिक जीवन के सूत्र तो मिलते ही हैं साथ ही अपनी संतान को कैसे संस्कारवान बनाएं इसके तरीके भी मिलते हैं।



पुंसवन संस्कार : इस संस्कार के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह समझाया जाता है कि शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक दृष्टि से परिपक्व यानि पूर्ण समर्थ हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान उत्पन्न करें।
नामकरण संस्कार: बालक का नाम सिर्फ उसकी पहचान के लिए ही नहीं रखा जाता। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर नामकरण संस्कार किया जाता है।
चूड़ाकर्म संस्कार: (मुण्डन, शिखा स्थापना) सामान्य अर्थ में, माता के गर्भ से सिर पर आए वालों को हटाकर खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से नवजात शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक विकास, कुविचारों के परिस्कार के लिये भी यह संस्कार बहुत आवश्यक है।
अन्नप्राशसन संस्कार: जब शिशु के दांत उगने लगें, तो मानना चाहिए कि प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग को ध्यान में रखकर शिशु के भोजन का निर्धारण किया जाता है। इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखकर यह महत्वपूर्ण संस्कार संपन्न किया जाता है।
विद्यारंभ संस्कार: जब बालक/ बालिका की उम्र शिक्षा ग्रहण करने लायक हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है । इसमें समारोह के माध्यम से जहां एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वहीं ज्ञान के मार्ग का साधक बनाकर अंत में आत्मज्ञान की और प्रेरित किया जाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार :
जब बालक/ बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों का पालन करने की जिम्मेदारी सोंपी जाती है।
विवाह संस्कार : सफल गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक सामथ्र्य आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। यह संस्कार जीवन का बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है जो एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाता है।
वानप्रस्थ संस्कार : गृहस्थ की जिम्मेदारियां यथा शीघ्र संपन्न करके, उत्तराधिकारियों को अपने कार्य सौंपकर अपने व्यक्तित्व को धीरे-धीरे सामाजिक, उत्तरदायित्व, पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह लगा देना ही इस संस्कार का उद्देश्य है।
अन्येष्टि संस्कार : मृत्यु जीवन का एक अटल सत्य है । इसे जरा-जीर्ण को नवीन-स्फूर्तिवान जीवन में रूपान्तरित करने वाला महान देवता भी कह सकते हैं ।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार): मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है । शरीर की समाप्ति के बाद भी जीवन की यात्रा रुकती नहीं है । आगे का क्रम भी अच्छी तरह सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है।
जन्म दिवस संस्कार : मनुष्य को अन्यान्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन वह पावन पर्व है, जिस दिन ईश्वर ने हमें श्रेष्ठतम मनुष्य जीवन में भेजा। श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के लिये ईश्वर का धन्यवाद एवं जीवन का सदुपयोग करने का संकल्प ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है।
विवाह दिवस संस्कार : जैसे जीवन का प्रांरभ जन्म से होता है, वैसे ही परिवार का प्रारंभ विवाह से होता है। श्रेष्ठ परिवार और उस माध्यम से श्रेष्ठ समाज बनाने का शुभ प्रयोग विवाह संस्कार से प्रारंभ होता है।

लड़की में संतान दोष : कारण और निवारण

हर विवाहित स्त्री चाहती हैं कि उसका भी कोई अपना हो जो उसे मां कहकर पुकारे। सामान्यत: अधिकांश महिलाएं भाग्यशाली होती हैं जिन्हें यह सुख प्राप्त हो जाता है।

फिर भी काफी महिलाएं ऐसी हैं जो मां बनने के सुख से वंचित हैं। यदि पति-पत्नी दोनों ही स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हैं फिर भी उनके यहां संतान उत्पन्न नहीं हो रही है। ऐसे में संभव है कि ज्योतिष संबंधी कोई अशुभ फल देने वाला ग्रह उन्हें इस सुख से वंचित रखे हुए है। यदि पति स्वास्थ्य और ज्योतिष के दोषों से दूर है तो स्त्री की कुंडली में संतान संबंधी कोई रुकावट हो सकती है।

ज्योतिष के अनुसार संतान उत्पत्ति में रुकावट पैदा करने वाले योग

- जब पंचम भाव में का स्वामी सप्तम में तथा सप्तमेश सभी क्रूर ग्रह से युक्त हो तो वह स्त्री मां नहीं बन पाती।

- पंचम भाव यदि बुध से पीडि़त हो या स्त्री का सप्तम भाव में शत्रु राशि या नीच का बुध हो तो स्त्री संतान उत्पन्न नहीं कर पाती।

- पंचम भाव में राहु हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो, सप्तम भाव पर मंगल और केतु की नजर हो, तथा शुक्र अष्टमेश हो तो संतान पैदा करने में समस्या उत्पन्न होती हैं।

- सप्तम भाव में सूर्य नीच का हो अथवा शनि नीच का हो तो संतानोत्पत्ती में समस्या आती हैं।

यदि किसी लड़की की कुंडली यह ग्रह योग हैं तो इन बुरे ग्रह योग से बचने के लिए उन्हें यह उपाय करने चाहिए-

- हरिवंश पुराण का पाठ करें।

- गोपाल सहस्रनाम का पाठ करें।

- पंचम-सप्तम स्थान पर स्थित क्रूर ग्रह का उपचार करें।

- दूध का सेवन करें।

- सृजन के देवता भगवान शिव का प्रतिदिन विधि-विधान से पूजन करें।

- किसी बड़े का अनादर करके उसकी बद्दुआ ना लें।

- पूर्णत: धार्मिक आचरण रखें।

- गरीबों और असहाय लोगों की मदद करें। उन्हें खाना खिलाएं, दान करें।

- किसी अनाथालय में गुप्त दान दें।

संतान चाहिए? ये ज्योतिषीय उपाय करें...

यह मुख्य विषय प्रारब्ध एवं भाग्य संबंधी होता है। किंतु ठीक उपाए कर लिए जाएं तो संतान की प्राप्ती निश्चित होती है।

पहला उपाए- संतान गोपाल मंत्र के सवा लाख जप शुभ मुहूर्त में शुरू करें। साथ ही बालमुकुंद (लड्डूगोपाल जी) भगवान की पूजन करें। उनको माखन-मिश्री का भोग लगाएं। गणपति का स्मरण करके शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करके निम्न मंत्र का जप करें।
मंत्र
ऊं क्लीं देवकी सूत गोविंदो वासुदेव जगतपते देहि मे,
तनयं कृष्ण त्वामहम् शरणंगता: क्लीं ऊं।।

दूसरा उपाए- सपत्नीक कदली (केले) वृक्ष के नीचे बालमुकुंद भगवान की पूजन करें। कदली वृक्ष की पूजन करें, गुड़, चने का भोग लगाएं। 21 गुरुवार करने से संतान की प्राप्ती होती है।

तीसरा उपाए- 1 प्रदोष का व्रत करें, प्रत्येक प्रदोष को भगवान शंकर का रुद्राभिषेक करने से संतान की प्राप्त होती है।

चौथा उपाए- गरीब बालक, बालिकाओं को गोद लें, उन्हें पढ़ाएं, लिखाएं, वस्त्र, कापी, पुस्तक, खाने पीने का खर्चा दो वर्ष तक उठाने से संतान की प्राप्त होती है।

पांचवां उपाए- आम, बील, आंवले, नीम, पीपल के पांच पौधे लगाने से संतान की प्राप्ति होती है।

चार प्रकार के होते हैं पुत्र

भागवत के अनुसार एक राजा हुए, नाम था उनका चित्रकेतु। राजा चित्रकेतु के इकलौते पुत्र की मृत्यु हो जाती है। इकलौते पुत्र की मृत्यु से चित्रकेतु को गहरा आघात पहुंचता है। उस समय देवर्षि नारद चित्रकेतु को वैराग्य का उपदेश देते हैं।
नारदजी ने बताया राजन पुत्र चार प्रकार के होते हैं- शत्रु पुत्र, ऋणानुबंध पुत्र, उदासीन और सेवा पुत्र

शत्रु पुत्र: जो पुत्र माता-पिता को कष्ट देते हैं, कटु वचन बोलते हैं और उन्हें रुलाते हैं, शत्रुओं सा कार्य करते हैं वे शत्रु पुत्र कहलाते हैं।

ऋणानुबंध पुत्र: पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शेष रह गए अपने ऋण आदि को पूर्ण करने के लिए जो पुत्र जन्म लेता है वे ऋणानुबंध पुत्र कहलाते हैं।

उदासीन पुत्र: जो पुत्र माता-पिता से किसी प्रकार के लेन-देन की अपेक्षा न रखते विवाह के बाद उनसे विमुख हो जाए, उनका ध्यान ना रखे, वे उदासीन पुत्र कहलाते हैं।

सेवा पुत्र: जो पुत्र माता-पिता की सेवा करता है, माता-पिता का ध्यान रखते हैं, उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने देते, ऐसे पुत्र सेवा पुत्र अर्थात् धर्म पुत्र कहलाते हैं।

नारदजी कहते हैं कि मनुष्य का वास्तविक संबंध किसी से नहीं होता। इसलिए आत्मचिंतन में रमना ही उसका परम कर्तव्य है।

दीपक बुझाने वाले रहते हैं हमेशा गरीब

हते हैं कि समय के साथ ही इंसान को बदलते रहना चाहिये, तथा पुरानी और अनावश्यक बातों को छोड़ देना चाहिये। किन्तु यहां ऐसा करते समय इंसान को बड़ी सावधानी तथा चौकन्ना रहने की जरूरत होती है।

आंख मीचकर हर नई चीज को गले लगा लेना और पुराना कहकर हर बात को ठुकरा देना, दोनों ही बातों में बराबर का खतरा है। पुरानी परंपराओं या मान्यताओं में हो सकता है कुछ समय के साथ अनावश्यक और बेकार हो गई हों, किन्तु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो सैकड़ों हजारों साल गुजरने के बावजूद आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कारगर हैं।

इन परंपराओं और मान्यताओं के पीछे गहरा विज्ञान छुपा होता है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण परंपरा है कि, व्यक्ति को कभी भी देव स्थान पर जलते हुए दीपक को नहीं बुझाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से इंसान को सदा दरिद्र यानि कि गरीब ही रहना पड़ता है? आइये जाने उन कारणों को:-

- धन की देवी लक्ष्मी और धन के राजा देवता कुबेर दोनों की ही आराधना में दीपक का प्रमुख स्थान होता है। बगैर दीपक के दोनों की ही पूजा- आराधना अधूरी मानी जाती है।

- ज्योतिष मे भी ऐसी मान्यता है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से सारे ग्रह-नक्षत्र इंसान के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। खासकर देवता सूर्य सबसे ज्यादा असर डालते हैं।

राम नीले क्यूँ, कृष्ण काले क्यूँ



अक्सर मन में यह सवाल गूंजता है कि हमारे भगवानों के रंग-रूप इतने अलग क्यों हैं। भगवान कृष्ण का काला रंग तो फिर भी समझ में आता है लेकिन भगवान राम को नील वर्ण भी कहा जाता है। क्या वाकई भगवान राम नीले रंग के थे, किसी इंसान का नीला रंग कैसे हो सकता है? वहीं काले रंग के कृष्ण इतने आकर्षक कैसे थे? इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।


राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।


इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

अंग फड़कना भी होता है शुभ-अशुभ

हमारा शरीर अन्य प्राणियों की तुलना में काफी संवेदनशील होता है। यही कारण है कि भविष्य में होने वाली घटना के प्रति हमारा शरीर पहले ही आशंका व्यक्त कर देता है। शरीर के विभिन्न अंगों का फड़कना भी भविष्य में होने वाली घटनाओं से हमें अवगत कराने का एक माध्यम है।

नीचे विभिन्न अंगों के फड़कने के फलादेश दिए गए हैं-

सिर के अलग-अलग हिस्सों के फड़कने का भिन्न-भिन्न अर्थ होता है जैसे- मस्तक फड़कने से भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। कनपटी फड़के तो इच्छाएं पूर्ण होती है। दाहिनी आंख व भौंह फड़के तो समस्त अभिलाषा पूर्ण होती है। बांई आंख व भौंह फड़के तो शुभ समाचार मिलता है। दोनों गाल यदि फड़के तो अतुल धन की प्राप्ति होती है। यदि होंठ फडफ़ड़ाएं तो हितैषी का आगमन होता है। मुंह का फड़कना पुत्र की ओर से शुभ समाचार का सूचक होता है। यदि लगातार दाहिनी पलक फडफ़ड़ाए तो शारीरिक कष्ट होता है।

हाथ के विभिन्न हिस्सों का फड़कना
दाहिनी ओर का कंधा फड़के तो धन-संपदा मिलती है। बांई ओर का फड़के तो सफलता मिलती है और यदि दोनों कंधे फड़कें तो झगड़े की संभावना रहती है। हथेली में यदि फडफ़ड़ाहत हो तो व्यक्ति किसी विपदा में फंस जाता है। हाथों की अंगुलियां फड़के तो मित्र से मिलना होता है। दाईं ओर की बाजू फड़के तो धन व यश लाभ तथा बाईं ओर की बाजू फड़के तो खोई वस्तु मिल जाती है। दाईं ओर की कोहनी फड़के तो झगड़ा होता है, बाईं ओर की कोहनी फड़के तो धन की प्राप्ति होती है।

शरीर के मध्य भागों का फड़कना
पीठ फड़के तो विपदा में फंसने की संभावना रहती है। दाहिनी ओर की बगल फड़के तो नेत्रों का रोग हो जाता है। पसलियां फड़के तो विपदा आती है। छाती में फडफ़ड़ाहट मित्र से मिलने का सूचक होती है। ह्रदय का ऊपरी भाग फड़के तो झगड़ा होने की संभावना होती है। नितंबों के फड़कने पर प्रसिद्धि व सुख मिलता है।

पैर के विभिन्न हिस्सों का फड़कना
दाहिनी ओर की जांघ फड़के तो अपमान होता है, बाईं ओर की फड़के तो धन लाभ होता है। गुप्तांग फड़के तो दूर की यात्रा पर जाना होता है। दाईं ओर का अंडकोष फड़के तो खोई वस्तु की प्राप्ति होती है, बाईं ओर का फड़के तो पुत्र से सुख और विदेश यात्रा का योग बनता है। दाहिनें पैर का तलवा फड़के तो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, बाईं ओर का फड़के तो निश्चित रूप से यात्रा पर जाना होता है।

786 अंक का महत्व

सैकड़ों या उससे भी ज्यादा धर्म हैं पृथ्वी पर। हर धर्म की कुछ विशिष्टताएं या खासियतें होती है। हिन्दुओं में ऊँ, स्वास्तिक और कार्य के प्रारंभ में श्री गणेशाय नम: का विशेष महत्व माना जाता है। सिक्खों मे अरदास, गुरुवाणी, सत श्रीअकाल और पगड़ी का खास महत्व होता है। वहीं ईसाई धर्म के मानने वालों का जीजस का्रइस्ट, क्रास का चिन्ह, माता मरियम और बाइबिल आदि के प्रति बड़ा आत्मीय सम्मान होता है।


जिस तरह किसी भी नए या शुभ कार्य की शुरुआत करने से पूर्व हिन्दुओं में गणेश को पूजा जाता है, क्योंकि गणेश को विघ्नहर्ता और सद्बुद्धि का देवता माना जाता है। उसी प्रकार इस्लाम धर्म में अंक-786 को सुभ अंक या शुभ प्रतीक माना जाता है। अरब से जन्में इस्लाल धर्म में अंक -786 का बड़ा ही धार्मिक महत्व माना गया है।


प्राचीन काल में अंक ज्योतिष और नक्षत्र ज्योतिष दोनों एक भविष्य विज्ञान के ही अंग थे। प्राचीन समय में अंक ज्योतिष के क्षेत्र में अरब देशों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। अरब देशों में ही इस्लाम का जन्म और प्रारंभिक संस्कारीकरण हुआ है। अंक-786 को अरबी ज्योतिष में बड़ा ही शुभकारक अंक माना गया है।


अंक ज्योतिष के अनुसार जब 7+8+6 का योग 21 आता है, तथा 2+1 का योग करने पर 3 का आंकड़ा मिलता है, जो कि लगभग सभी धर्मों में अत्यंत शुभ एवं पवित्र अंक माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संख्या तीन, अल्लाह, पैगम्बर और नुमाइंदे की संख्या भी तीन तथा सारी सृष्टि के मूल में समाए प्रमुख गुण- सत् रज व तम भी तीन ही हैं।

विवाह के सातों वचन क्या और क्यों?

निर्विवाद रूप से विश्व की प्राचीनतम संस्कृति होने का गौरव, भारतीय संस्कृति को ही प्राप्त है। भारतीय संस्कृकि की आदर्श, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक परंपराएं ही इसे सर्वश्रेष्ठ एवं महान बनाती हैं।

ऎसी ही एक परंपरा है-विवाह परंपरा।

जंहा विश्व के अन्य देशों विवाह को महज एक आवश्यकता और समझोता माना जाता है वहीं भारत में विवाह को धर्म का अनिवार्य अंग माना गया है। विवाह का आयोजन भी पूरे धार्मिक तरीके से सम्पंन किया जाता है। विवाह में वर और वधु के द्वारा पवित्र बंधन में बंधने से एक-दूसरे को कुछ वचन दिये जाते हैं जिनका पालन ताउम्र किया जाता है।

ये वचन इस प्रकार हैं -

वर से लिए गए वचन:
ग़ृहस्थ जीवन में सुख-दु:ख की स्थितियां आती रहती हैं, लेकिन तुम हमेशा अपना स्वभाव मधुर रखोगे।मुझे बताये बिना कुआं - बावड़ी - तालाब का निर्माण, यज्ञ-महोत्सव का आयोजन और यात्रा नहीं करोगे। मेरे व्रत, दान और धर्म कार्यों में रोक-टोक नहीं करोगे। मेहनत से जो कुछ भी अर्जित करोगे, मुझे सौंपोगे। मेरी राय के बिना कोई भी चल-अचल सम्पति का क्रय-विक्रय नहीं करोगे।घर की सभी कीमती चीजें, गहने, आभूषण मुझे रखने के लिए दोगे। माता-पिता के किसी आयोजन में मेरे पीहर जाने पर आपत्ति नहीं करोगे।

वधु से लिए गए वचन: मेरी अनुपस्थिति में बिना बताए कहीं नहीं जाओगी। विष्णु, वैश्वानर, ब्राह्मण, मेहमान और परिजन सभी साक्षी हैं कि मैं तुम्हारा हो चुका हूँ। मेरे मन में तुम्हारा मन रहे। तुम्हारी बातों में मेरी बातें रहें और मुझे अपने ह्रदय में रखोगी। मेरी इच्छाओं और आज्ञाओं का निरादर नहीं करोगी और बड़ों का सम्मान करोगी। हमेशा मेरी विश्वसनीय बनी रहोगी।


शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

क्यों चढ़ाते हैं शनि पर तेल?


शनि पर तेल चढ़ाने का धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों महत्व है। शनि न्यायप्रिय ग्रह है और श्रम से प्रसन्न होते हैं। शनि की नाराजी श्रम से दूर की जा सकती है लेकिन उस श्रम के लिए हमारे शरीर में शक्ति, स्वास्थ्य और सामथ्र्य रहे, इसके लिए शनि को तेल चढ़ा कर प्रसन्न किया जाता है। पुराणों में शनि को तेल चढ़ाने के पीछे कई भिन्न-भिन्न कथाएं हैं। मुख्यत: ये सारी कथाएं रामायण काल और विशेष रूप से भगवान हनुमान से जुड़ी हैं। अलग-अलग कथाओं में शनि को तेल चढ़ाने की चर्चा है लेकिन सार सभी का यही है। शनि नीले रंग का क्रूर माना जाने वाला ग्रह है, जिसका स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उसने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीड़ित शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा तथा शनिवार को मुझपर तेल चढ़ाएगा उसका मैं कल्याण करुंगा।धार्मिक महत्व के साथ ही इसका वैज्ञानिक आधार भी है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि शनिवार को तेल लगाने या मालिश करने से सुख प्राप्त होता है। उक्त वाक्य और शनि को तेल चढ़ाने का सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को त्वचा, दांत, कान, हड्डियों और घुटनों में स्थान दिया गया है। उस दिन त्वचा रुखी, दांत, कान कमजोर तथा हड्डियों और घुटनों में विकार उत्पन्न होता है। तेल की मालिश से इन सभी अंगों को आराम मिलता है। अत: शनि को तेल अर्पण का मतलब यही है कि अपने इन उपरोक्त अंगों की तेल मालिश द्वारा रक्षा करो।दांतों पर सरसो का तेल और नमक की मालिश। कानों में सरसो तेल की बूंद डालें। त्वचा, हड्डी, घुटनों पर सरसो के तेल की मालिश करनी चाहिए। शनि का इन सभी अंगों में वास माना गया है, इसलिए तेल चढ़ाने से वे हमारे इन अंगों की रक्षा करते हैं और उनमें शक्ति का संचार भी करते हैं।

क्यों नहीं चढ़ाते शिव को शंख से जल?


शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पातिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशुल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

नवविवाहित दंपती के लिए कक्ष

नवविवाहित के लिए वायव्य कोण में शयन कक्ष का चयन सर्वोत्तम है। संतान के इच्छुक दंपती भी इस क्षेत्र को शयन कक्ष के रूप में चुन सकते हैं

नव दंपती के शयन-कक्ष की आंतरिक सुसज्जा
नव दंपती के शयन कक्ष की आंतरिक सुसज्जा अतिथि कक्ष की आंतरिक व्यवस्था की तरह की जा सकती है। ध्यान रहे कि नव विवाहित दंपती का शयनकक्ष आग्नेय कोण में कदापि नहीं होना चाहिए। अग्नि कोण में शयन कक्ष होने से आपसी संबंधों में तनाव तथा तनातनी रहती है। यहां शयन करने से परस्पर विवाद काफी ज्यादा होता है। सफेद , क्रीम , या पीच रंग का प्रयोग इन कक्षों में उत्तम पाया गया है। कमरे में ताजे फूल रखें। इस कक्ष में फल आदि भी रखें , विशेषकर अनार जो कि स्वयं में प्रजनन का प्रतीक माना गया है।

इस कमरे में दर्पण न लगाएं। यदि इस कमरे में ड्रेसिंग टेबल हो तो विशेष ध्यान दें कि सोते समय आपका प्रतिबिम्ब दर्पण में न आए। यदि ऐसा हो तो शीशे को ढक कर रखें। यदि टॉइलट इस कक्ष के साथ हो तो उसके द्वार को सदैव बंद रखें। पत्नी पति के बाईं ओर सोए। पलंग द्वार के एकदम सम्मुख नहीं होना चाहिए। बिस्तर, बीम के नीचे नहीं हो। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो कम से कम यह ध्यान अवश्य रखें कि बीम बिस्तर की लंबाई की दिशा में हो, न कि चौड़ाई की दिशा में।

वैवाहिक संबंधों में सामंजस्य के लिए बीम के दोष के परिहार हेतु बीम से दो बांसुरियां लटका दें अन्यथा फॉल्स छत डलवाकर बीम को छिपा दें। जिन युवा कपल्स को गर्भधारण में कठिनाई आ रही हो, उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए कि उनका बिस्तर बीम के नीचे न हो। अलमारी , टेबल अथवा कमरे का कोई नुकीला कोना बिस्तर की ओर भेदन न कर रहा हो। संतान इच्छुक कपल्स के लिए सुझाव है कि उत्तर में सिर और दक्षिण में पैर करके न सोएं।

दक्षिण दिशा में सिर करके और उत्तर में पैर करके सोने से अच्छे परिणाम आते हैं। ऐसा पाया गया है कि भवन की उत्तर दिशा अगर बाधित हो, तो पुत्र संतान की प्राप्ति में बाधा आती है। यदि मुख्य द्वार पर्जन्य नामक देवता के स्थान पर हो तो कन्याओं की अधिकता होती है। संतान इच्छुक दंपती गर्भधारण तक वायव्य या उत्तर दिशा के मध्य के शयनकक्ष में निवास करें। गर्भधारण के पश्चात् उन्हें दक्षिण दिशा के शयनकक्ष में स्थानांतरण कर देना चाहिए। प्रसवकाल तक गर्भ की सुरक्षा की दृष्टि से दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण का शयनकक्ष अधिक सुरक्षित है।

जिन दंपती में वैवाहिक मतभेद हो रहे हों, उन्हें चाहिए कि वे अपने डबल-बेड पर इकहरा गद्दा बिछाएं। दो अथवा अधिक गद्दों के टुकड़े बिछाने से पति पत्नी में आपस में कटुता पैदा होती है। अगर दो गद्दे हो, तो इन्हें आपस में सिला भी जा सकता है, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि यह एक ही है। बिस्तर के ऊपर लंबाई में पड़ा हुआ बीम वैवाहिक रिश्तों में तनाव लाता है। बांस की दो बांसुरियां आपस में एक दूसरे को काटती हुई और नीचे कर लटकाने से बीम के दोष का परिहार हो जाता है।

ऐसी वस्तुएं , पेंटिंग , तस्वीरें अथवा फोटोग्राफ जिससे वैवाहिक जीवन के आनंदमय क्षणों की याद आती रहे, उन्हें नैऋत्य कोण में लगाने से आपस में कटुता में कमी आती है। सौहार्दपूर्ण जीवन के लिए सात छड़ी वाली रुपहली घंटी दक्षिण दिशा में खिड़की में लटकाएं। फेंगशुई के अनुसार, हंसों का जोड़ा शयनकक्ष में रखने से आपस में प्रेम और विश्वास में वृद्धि होती है। यह किसी भी प्रकार के जैसे कांच , मिट्टी अथवा सिरैमिक के बने हो सकते हैं। इन्हें शयनकक्ष के नैऋत्य कोण में रखना उत्तम है।

कमरे के भीतर अंधेरा अथवा कम रोशनी नहीं होनी चाहिए। दिन के समय खिड़कियां खोल दें और पर्दे हटा देने चाहिए, जिससे अधिक से अधिक ताजी हवा और प्राकृतिक प्रकाश कक्ष में प्रवेश करता रहे। रात्रि के समय कमरे में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था रखें। रोशनी को कम अथवा अधिक करने के लिए नियंत्रक लगा सकते हैं। कमरे में बेकार का सामान न भरें। इस कमरे को सुंदर और सुरूचिपूर्ण ढंग से सजाएं, जिससे यह आकर्षक और स्वागतमय प्रतीत हो।

नैऋत्य कोण क्षेत्र शक्ति का प्रतीक है, परंतु साथ ही प्यार , भाग्य , रोमैंस और पारिवारिक खुशियों को नियंत्रक भी है। पवन घंटियों को क्रिस्टल के साथ नैऋत्य कोण में लटकाने से आपस में प्यार और विश्चास बढ़ता है। अंतत: इस कक्ष में मंदिर अथवा पूजा स्थल न बनाएं।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

वास्तु: भूमि का चयन और मिट्टी का स्वरूप


वास्तु के प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि निर्माण के लिए भूमि का चयन करते समय मिट्टी के स्वरूप की परख अवश्य की जाए। अन्य पहलुओं के साथ-साथ वह भी महत्वपूर्ण कारक है। वास्तु में मिट्टी को उसके रंग, स्वाद और महक के आधार पर चार श्रेणियों में बांटा गया है- ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य व शूद्र। जो मिट्टी श्वेत, थोड़ी लाल, भीनी-भीनी महक वाली और उपजाऊ होती है वह आवास तथा व्यावसायिक कार्यों के लिए बहुत शुभ होती है। काले वर्ण की दुर्गंधित और तीखे स्वाद वाली मिट्टी को अशुभ माना जाता है।

मिट्टी का विश्लेषण मिट्टी में निहित पंचतत्वों के गुणों के आधार पर किया जाता है। वास्तु संबंधी शास्त्रों में मिट्टी की विशेषताओं की व्याख्या रूप, रस , गंध , रंग , आकार , स्पर्श व ढलान के आधार पर की गई है और उसे ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
मिट्टी की विशेषताओं का रहने वाले लोगों पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार अलग-अलग श्रेणी की मिट्टी विभिन्न वर्ग और श्रेणी के निवासियों के लिए उपयुक्त होती है। उदाहरण के लिए ब्राह्मणी भूमि बुद्धिजीवियों , वैज्ञानिकों व धार्मिक नेताओं के लिए अच्छी मानी जाती है। इसका रंग श्वेत होता है , महक अच्छी होती है और स्वाद मीठा होता है। प्राचीन समय में देखा गया था कि अलग-अलग प्रकार की मिट्टी की जैविक संरचना और विशेषताएं अलग-अलग तरह के लोगों के लिए अनुकूल सिद्ध होती है और प्रभामंडल को और प्रभावी बनाती है।

मिट्टी की विशेषताओं और वहां रहने वाले लोगों के गुणों में परस्पर संबंध होता है। इनके सही मेल से वांछित लाभ अर्जित किया जा सकता है। ध्यान रखें कि यह वर्गीकरण जाति के आधार पर नहीं किया गया है, बल्कि व्यवसाय , कार्य के स्वरूप व मूल प्रवृत्ति के आधार पर किया गया है।

मिट्टी की जांच
प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूचाल , चक्रवात आदि की विनाशक शक्ति को झेलने में कोई भवन कितना सक्षम है , यह इस बात पर निर्भर करता है कि भवन का मूल आधार अर्थात् मिट्टी कितनी उपयुक्त व सुदृढ़ है। हमारे मनीषियों ने भवन की सुदृढ़ता और स्थायित्व के लिए भूखंड की मिट्टी की
गुणवत्ता , शुभता और अनुकूलताएं नींव स्थापना और भूखंड के सही आकार की महत्ता पर बल दिया था।
वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्माण उसी भूमि पर करना चाहिए, जिस भूमि की मिट्टी में घनत्व अधिक हो। आधुनिक समय में भी मिट्टी के अधिक घनत्व वाली भूमि को अच्छा माना जाता है और मिट्टी की सुदृढ़ता व उपयुक्तता की परख करने के लिए जांच की जाती है। यकीनन , हमारे पूर्वजों को भवन निर्माण संबंधी सभी पहलुओं का ज्ञान था। उन्हें न केवल वास्तुकला के सिद्धांतों का ज्ञान था, बल्कि मनुष्य में और उसके चारों ओर व्याप्त सूक्ष्म ब्रह्मांडीय ऊर्जा का भी पता था।
वास्तु में मिट्टी की शक्ति को परखने के लिए उसकी जांच करने की बात कही गई है, क्योंकि मिट्टी को ही भवन का पूरा भार वहन करना पड़ता है और प्राकृतिक शक्तियों और प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। हमारे प्राचीन वास्तु ग्रंथों में मिट्टी के घनत्व की जांच के लिए बहुत साधारण और सरल विधियां बताई गईं हैं।
भूखंड के बीच में एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसमें से निकाली गई मिट्टी से ही भर देना चाहिए। यदि गड्ढे को अच्छी तरह भरने के बाद भी मिट्टी बच जाए तो वह भूमि घर बनाने के लिए उत्तम होती है। यदि उस मिट्टी से गड्ढा भर दिया जाए और मिट्टी न बचे तो भूमि मध्यम होती है और यदि गड्ढा भरने में मिट्टी कम पड़ जाए तो उस भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिए।
मिट्टी को परखने के लिए खाली गड्ढे को शाम के समय पानी से भरकर छोड़ देना चाहिए। सुबह तक यदि इस गड्ढे में कुछ पानी बचे तो वह भूमि मकान बनाने के लिए शुभ होती है। यदि गड्ढे में गीली-गीली मिट्टी हो तो भूमि मध्यम होती है , यदि गड्ढे में पानी न हो और दरारें हो तो उस भूमि पर मकान नहीं बनाना चाहिए।

भूमि जांच का एक अन्य तरीका भूमि पर हल चलाकर भी किया जाता है। हल चलाने से ऊपरी सतह के हट जाने के बाद मिट्टी की सही जानकारी प्राप्त हो जाती है। यदि पशुओं की हड्डियां , बाल आदि मिले तो उस भूमि को निर्माण के लिए अशुभ माना जाता है। भूमि का मुख्य गुण उसका चिकनापन और ठोस होना माना गया है। रेतीली मिट्टी एक स्थिर भवन के निर्माण के लिए सही नहीं समझी जाती। दरारों वाली , चींटियों और दीमकों के बिल वाली , दलदली और ऊंची-नीची भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिए।
अगर ऐसी भूमि पर भवन बनाना जरूरी हो तो उसकी ( 5.5-6 फुट तक) खुदाई कर उसमें अशुभ चीजों का शोधन करके बडे़ गोल पत्थरों और चिकनी मिट्टी से भरकर समतल कर लेना चाहिए। उसके बाद पानी से पूरे भूखंड को संचित कर फिर भवन निर्माण करवाना चाहिए।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

वास्तु से बढाएं पिता-पुत्र में प्रेम



वास्तु अध्ययन व अनुभव यह बताता है कि जिस भवन में वास्तु स्थिति गड़बड होती है, वहाँ व्यक्ति के पारिवारिक व व्यक्तिगत रिश्तों में अक्सर मतभेद, तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। वास्तु में पूर्व ईशानजनित दोषों के कारण पिता-पुत्र के संबंधों में धीरे-धीरे गहरे मतभेद दूरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और साथ ही कई परिवारों को पुत्र हानि का भी सामना करना पड़ता है सूर्य को पुत्र का कारक ग्रह माना जाता है, जब भवन में ईशान व पूर्व वास्तु दोषयुक्त हो तो यह घाव में नमक का कार्य करता है। जिससे पिता-पुत्र जैसे संबंधों में तालमेल का भाव व पुत्र-पिता के प्रति दुर्भावना रखता है। वास्तु के माध्यम से पिता पुत्र के संबंधों को अति मधुर बनाया जा सकता है।

महत्वपूर्ण व उपयोगी तथ्य जो पिता-पुत्र के संबंधों को प्रभावित करते हैं :

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ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूखण्ड कटा हुआ नहीं होना चाहिए।
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भवन का भाग ईशान (उत्तर-पूर्व) में उठा होना अशुभ हैं। अगर यह उठा हुआ है तो पुत्र संबंधों में मधुरता व नजदीकी का आभाव रहेगा।
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उत्तर-पूर्व (ईशान) में रसोई घर या शौचालय का होना भी पुत्र संबंधों को प्रभावित करता है। दोनों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी रहती है।
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दबे हुए ईशान में निर्माण के दौरान अधिक ऊँचाई देना या भारी रखना भी पुत्र और पिता के संबंधों को कलह और परेशानी में डालता रहता है।
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ईशान (उत्तर-पूर्व) में स्टोर रूम, टीले या पर्वतनुमा आकृति के निर्माण से भी पिता-पुत्र के संबंधों में कटुता रहती है तथा दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।
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इलेक्ट्रॉनिक आइटम या ज्वलनशील पदार्थ तथा गर्मी उत्पन्न करने वाले अन्य उपकरणों को ईशान (उत्तर-पूर्व) में रखने से पुत्र, पिता की बातों की अवज्ञा अर्थात्‌ अवहे‌लना करता रहता है, और समाज में बदनामी की स्थिति पर ला देता है।
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इस दिशा में कूड़ेदान बनाने या कूड़ा रखने से भी पुत्र, पिता के प्रति दूषित भावना रखता हैं। यहाँ तक मारपीट की नौबत आ जाती है।
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ईशान कोण खंडित होने से पिता-पुत्र आपसी मामलों को लेकर सदैव लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
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यदि कोई भूखंड उत्तर व दक्षिण में सँकरा तथा पूर्व व पश्चिम में लंबा है तो ऐसे भवन को सूर्यभेदी कहते हैं यहाँ भी पिता-पुत्र के संबंधों में अनबन की स्थिति सदैव रहती है। सेवा तो दूर वह पिता से बात करना तथा उसकी परछाई में भी नहीं आना चाहता है।

इस प्रकार ईशान कोण दोष अर्थात्‌ वास्तुजनित दोषों को सुधार कर पिता-पुत्र के संबंधों में अत्यंत मधुरता लाई जा सकती हैं। सूर्य संपूर्ण विश्व को ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है तथा इसी के सहारे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संचालित होती है तथा पराग कण खिलते हैं जिसके प्रभाव से वनस्पति ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत्‌ प्रभावित होता है। पूर्व व ईशानजनित दोषों से प्राकृतिक तौर पर प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिल पाती और पिता-पुत्र जैसे संबंधों में गहरे तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव वास्तुजनित दोषों को समझते हुए ईशान की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।


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पं. प्रेमकुमार शर्मा
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