रविवार, 12 सितंबर 2010

गुरु ग्रंथ साहिब पढ़कर खुश हुआ बादशाह अकबर

सिक्खों के पांचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया। उस समय मुगलकाल का दौर था और अकबर की बादशाहत थी। अर्जुनदेवजी से ईष्र्या रखने वाले लोगों ने बादशाह अकबर को गुरुदेव और गुरु ग्रंथ के खिलाफ भड़काया और कहा कि गुरुग्रंथ साहिब में हिंदू और मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। जिससे राज्य में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो सकता है।

अकबर ने यह सारी बातें सुनकर तुरंत ही गुरुदेव से ग्रंथ साहिब मंगवाया।

गुरुदेव को बादशाह का संदेश मिलने पर उन्होंने अपने प्रिय बुड्ढाजी को गुरुग्रंथ के साथ अकबर के पास भेजा। अकबर ने बुड्ढाजी से ग्रंथ साहिब के संबंध मे सुनी सारी बातें कह सुनाई। बुड्ढाजी ने बादशाह से कहा आप खुद ग्रंथ साहिब को कही से भी खोलकर पढ़ लें। आपकी सारी शंकाओं का समाधान हो जाएगा।

बादशाह अकबर ने ग्रंथ साहिब के पन्ने पलटना शुरू किए, एक पन्ने पर राग रामकली में लिखा पद देखा-
कोई बोलै राम राम, कोई खुदाई।
कोई सेवै गुसइयां, कोई अलाहि॥
कारण करण करीम।
किरपा धारि रहीम॥
कोई न्हावै तीरथि, कोई हज जाई।
कोई करै पूजा, कोई सिरु निवाई॥
कोई पढ़ै वेद, कोई कतेब।
कोई औढ़ै नील कोई सुपेद॥
कोई कहै तुरुक, कोई कहै हिंदू।
कोई बांछै भिसतु, कोई सुरगिंदू॥
कहु नानक जिति हुकमु पछाना।
प्रभु साहिब का तिनि भेदु न जाना॥

यह पद पढ़कर बादशाह अकबर की खुशी का ठिकाना ना रहा और उसने देखा पूरे ग्रंथ में इस तरह की कई पंक्तियां हैं। इसके बाद बादशाह अकबर ग्रंथ साहिब से इतने प्रभावित हुए कि वे खुद गुरु अर्जुनदेवजी से मिलने अमृतसर श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए।

अकबर ने हरमंदिर साहिब के दर्शन कर ५१ अशर्फियां चढ़ाई। अब वे गुरुदेव से मिलने पहुंचे। अकबर गुरुदेव से मिलकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने गुरुजी को कोई जागीर देने की इच्छा जताई।

उस समय पंजाब में किसानों की फसल अच्छी नहीं हुई थी और वे बादशाह अकबर का लगान चुकाने में असमर्थ थे। बस गुरुदेव ने किसानों को उस लगान से मुक्त करने की बात बादशाह के सामने रखी। मुगल बादशाह कभी लगान नहीं छोड़ते थे परंतु गुरुदेव की बात मानकर अकबर ने किसानों का लगान माफ कर दिया। इस बात से बादशाह अकबर के मन में गुरुदेव के प्रति आस्था और बढ़ गई।

टोटके : क्या आप चाहते हैं लहलहाते बाल

भागदौड़ भरी जिंदगी और अव्यवस्थित दिनचर्या के कारण युवाओं को बहुत सी स्वास्थ्यगत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अधिकतर युवाओं में एक समस्या बहुत मिलती-जुलती है, कम उम्र में ही बाल झड़ने की।

तंत्र शास्त्र में कई ऐसे टोटके हैं जिसके जरिए हम खुबसूरत बाल पा सकते हैं, बालों का झड़ना रोक सकते हैं।

अगर आपके बाल बहुत ज्यादा झड़ते हैं तो एक प्रयोग हम आपको बता रहे हैं। यह सिद्ध प्रयोग है और इसके करने से निश्चित ही आपको लाभ भी मिलेगा।

बाजार से एक मोती शंख खरीद लें। एक दिन पहले इसमें साफ पानी भरकर रख लें। इस पानी में बाहरी धूल-मिट्टी न लगने पाए। अगले दिन इस पानी को अपने बालों में तेल की तरह लगाएं और सूखने दें। पानी लगाते समय इस मंत्र का जाप करें :

।। ऊँ ह्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं ऊँ।।

इसके बाद अपना सिर धो लीजिए। थोड़े दिन यह प्रयोग करने से ही आपको अपने बालों में फर्क महसूस होने लगेगा।

भगवान कृष्ण का महानिर्वाण


धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति फेर दी।

एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा।

इस घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के श्राप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया।

सफलता के नशे में माता-पिता को मत भूलो

राजा ज्ञानसेन के दरबार में प्राय: शास्त्रार्थ हुआ करता था। शास्त्रार्थ में जो विजयी होता, ज्ञानसेन उसे धन और मान से उपकृत करते। ज्ञान की ऐसी प्रतिस्पर्धा और फिर श्रेष्ठ ज्ञानी उपलब्धि में राजा ज्ञानसेन को आनंद की अनुभूति होती थी।

एक दिन ज्ञान सेन के दरबार में शास्त्रार्थ चल रहा था। उस शास्त्रार्थ में विद्वान भारवि विजेता घोषित किए गए। राजा ज्ञानसेन ने उन्हें हाथी पर बैठाया और स्वयं चंवर डुलाते हुए उनके घर तक ले गए। भारवि जब ऐसे बड़े सम्मान के साथ घर पहुंचे तो उनके माता-पिता की खुशी का ठीकाना न रहा। घर लौटकर भारवि ने सर्वप्रथम अपनी माता को प्रणाम किया किंतु पिता की ओर उपेक्षा भरा अभिवादन मात्र किया। माता को यह उचित नहीं लगा। उन्होंने भारवि को साष्टांग दंडवत के लिए इशारा किया तो उन्होंने बड़े बेमन से इसका निर्वाह किया। पिता ने भी अनिच्छा से चिरंजीवी रहो कह दिया।

बात समाप्त हो गई किंतु माता-पिता खिन्न बने रहे। उन्हें वैसी प्रसन्नता न थी जैसी होना चाहिए थी। कारण भी स्पष्ट था। कारण भी स्पष्ट था। किसी बड़ी उपलब्धि को अर्जित करने पर संतान जिस विनम्रता के भाव से माता-पिता को नमन करती हैं उसका भारवि में सर्वथा अभाव था। उन्हें तो राजा द्वारा हाथी पर बैठाकर चंवर डुलाते हुए घर तक लाने का अहंकार था। इस अहंकार में उन्होंने शिष्टाचार व विनम्रता को भुला दिया था।

थोड़े दिनों तक माता-पिता की खिन्नता देखने के बाद भारवि माता से कारण पूछने गए। माता बोलीं- विजयी होकर लौटने के पीछे तुम्हारे पिता की कठोर साधना को तुम भुल गए। शास्त्रार्थ के दसों दिन उन्होंने मात्र जल लेकर तुम्हारी सफलता के लिए उपवार किया और उससे पूर्व पढ़ाने में कितना श्रम किया। यह तुम्हें याद ही न रहा। भारवि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने माता-पिता से क्षमा मांगी।

वस्तुत: सफलता कितनी ही बड़ी क्यों ना हो ङ्क्षकतु उसके मूल में माता-पिता के स्नेह एवं परिश्रम को भुलाना नहीं चाहिए। उनसे सदैव विनम्र बने रहना चाहिए क्योंकि विनम्रता से ही ज्ञान शोभा पाता है ।

कैसे बनाएं बच्चों को आज्ञाकारी?

आधुनिक युग में बच्चों को अच्छे संस्कार देना कठिन होता जा रहा है। घरों में हावी होता आधुनिकवाद हमारी नैतिक शिक्षा से अलग जा रहा है। बच्चे अनियमित दिनचर्या, असंयमित व्यवहार कर रहे हैं। माता-पिता को सम्मान, बड़ों का कहना मानना या छोटों को प्यार करना लगभग हमारे परिवारों से दूर जा रहा है।

कई दम्पति बच्चों को ऊंची शिक्षा तो दिलवा रहे हैं लेकिन बच्चों के व्यवहार से खुद ही दु:खी भी हैं। संस्कारों की कमी, बड़ों का कहना न मानना, उम्र के मुताबिक व्यवहार न होना बच्चों में आम समस्या है। इस समस्या का अध्यात्मिक समाधान भी हमारे शास्त्रों में दिया गया है। कुछ छोटे-छोटे उपाय हैं जो आपके बच्चों को संस्कारवान बनाने में मदद करेंगे।

अगर बच्चे संस्कार भूल रहे हैं, असभ्य हो रहे हैं या फिर आपके कहने में नहीं है तो यह उपाय किया जा सकता है:--

सूर्योदय
से पूर्व जागकर नित्यकर्मों से निवृत्त होने के पश्चात, पूर्व दिशा की और मुख करके बैठें।
साधना के लिये लिये श्वेत कम्बल का आसन बिछाएं, तथा स्वयं भी स्वेत वस्त्र पहनें।
भुवन भास्कर का मानसिक ध्यान करते हुए श्वेत पुस्प अर्पित करें।
पंचोपचार एवं धूप ध्यान के पश्चात १०८ बार निम्र मंत्र का जप करें भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमही, तन्नो सूर्य: प्रचोदयात।
मंत्र जप के पश्चात उगते हुए सूर्यदेव को जल चढ़ाएं एवं संतान की सद्बुद्धि के लिये प्रार्थना करें।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:

मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।

16 संस्कारों में लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र

हिंदू धर्म में किए जाने वाले 16 संस्कार केवल कर्मकांड या रस्में नहीं हैं। इनमें जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छुपे हैं। आज के भागदौड़ भरे जीवन में ये सूत्र हमें जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास को आगे बढ़ाते हैं। हमें इन संस्कारों में खुद के वैवाहिक, विद्यार्थी और व्यवसायिक जीवन के सूत्र तो मिलते ही हैं साथ ही अपनी संतान को कैसे संस्कारवान बनाएं इसके तरीके भी मिलते हैं।



पुंसवन संस्कार : इस संस्कार के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह समझाया जाता है कि शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक दृष्टि से परिपक्व यानि पूर्ण समर्थ हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान उत्पन्न करें।
नामकरण संस्कार: बालक का नाम सिर्फ उसकी पहचान के लिए ही नहीं रखा जाता। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर नामकरण संस्कार किया जाता है।
चूड़ाकर्म संस्कार: (मुण्डन, शिखा स्थापना) सामान्य अर्थ में, माता के गर्भ से सिर पर आए वालों को हटाकर खोपड़ी की सफाई करना आवश्यक होता है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से नवजात शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक विकास, कुविचारों के परिस्कार के लिये भी यह संस्कार बहुत आवश्यक है।
अन्नप्राशसन संस्कार: जब शिशु के दांत उगने लगें, तो मानना चाहिए कि प्रकृति ने उसे ठोस आहार, अन्नाहार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है। स्थूल (अन्नमयकोष) के विकास के लिए तो अन्न के विज्ञान सम्मत उपयोग को ध्यान में रखकर शिशु के भोजन का निर्धारण किया जाता है। इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखकर यह महत्वपूर्ण संस्कार संपन्न किया जाता है।
विद्यारंभ संस्कार: जब बालक/ बालिका की उम्र शिक्षा ग्रहण करने लायक हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है । इसमें समारोह के माध्यम से जहां एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वहीं ज्ञान के मार्ग का साधक बनाकर अंत में आत्मज्ञान की और प्रेरित किया जाता है।
यज्ञोपवीत संस्कार :
जब बालक/ बालिका का शारीरिक-मानसिक विकास इस योग्य हो जाए कि वह अपने विकास के लिए आत्मनिर्भर होकर संकल्प एवं प्रयास करने लगे, तब उसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुशासनों का पालन करने की जिम्मेदारी सोंपी जाती है।
विवाह संस्कार : सफल गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक सामथ्र्य आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। यह संस्कार जीवन का बहुत महत्वपूर्ण संस्कार है जो एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाता है।
वानप्रस्थ संस्कार : गृहस्थ की जिम्मेदारियां यथा शीघ्र संपन्न करके, उत्तराधिकारियों को अपने कार्य सौंपकर अपने व्यक्तित्व को धीरे-धीरे सामाजिक, उत्तरदायित्व, पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह लगा देना ही इस संस्कार का उद्देश्य है।
अन्येष्टि संस्कार : मृत्यु जीवन का एक अटल सत्य है । इसे जरा-जीर्ण को नवीन-स्फूर्तिवान जीवन में रूपान्तरित करने वाला महान देवता भी कह सकते हैं ।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार): मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है । शरीर की समाप्ति के बाद भी जीवन की यात्रा रुकती नहीं है । आगे का क्रम भी अच्छी तरह सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है।
जन्म दिवस संस्कार : मनुष्य को अन्यान्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जन्मदिन वह पावन पर्व है, जिस दिन ईश्वर ने हमें श्रेष्ठतम मनुष्य जीवन में भेजा। श्रेष्ठ जीवन प्रदान करने के लिये ईश्वर का धन्यवाद एवं जीवन का सदुपयोग करने का संकल्प ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है।
विवाह दिवस संस्कार : जैसे जीवन का प्रांरभ जन्म से होता है, वैसे ही परिवार का प्रारंभ विवाह से होता है। श्रेष्ठ परिवार और उस माध्यम से श्रेष्ठ समाज बनाने का शुभ प्रयोग विवाह संस्कार से प्रारंभ होता है।

लड़की में संतान दोष : कारण और निवारण

हर विवाहित स्त्री चाहती हैं कि उसका भी कोई अपना हो जो उसे मां कहकर पुकारे। सामान्यत: अधिकांश महिलाएं भाग्यशाली होती हैं जिन्हें यह सुख प्राप्त हो जाता है।

फिर भी काफी महिलाएं ऐसी हैं जो मां बनने के सुख से वंचित हैं। यदि पति-पत्नी दोनों ही स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हैं फिर भी उनके यहां संतान उत्पन्न नहीं हो रही है। ऐसे में संभव है कि ज्योतिष संबंधी कोई अशुभ फल देने वाला ग्रह उन्हें इस सुख से वंचित रखे हुए है। यदि पति स्वास्थ्य और ज्योतिष के दोषों से दूर है तो स्त्री की कुंडली में संतान संबंधी कोई रुकावट हो सकती है।

ज्योतिष के अनुसार संतान उत्पत्ति में रुकावट पैदा करने वाले योग

- जब पंचम भाव में का स्वामी सप्तम में तथा सप्तमेश सभी क्रूर ग्रह से युक्त हो तो वह स्त्री मां नहीं बन पाती।

- पंचम भाव यदि बुध से पीडि़त हो या स्त्री का सप्तम भाव में शत्रु राशि या नीच का बुध हो तो स्त्री संतान उत्पन्न नहीं कर पाती।

- पंचम भाव में राहु हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो, सप्तम भाव पर मंगल और केतु की नजर हो, तथा शुक्र अष्टमेश हो तो संतान पैदा करने में समस्या उत्पन्न होती हैं।

- सप्तम भाव में सूर्य नीच का हो अथवा शनि नीच का हो तो संतानोत्पत्ती में समस्या आती हैं।

यदि किसी लड़की की कुंडली यह ग्रह योग हैं तो इन बुरे ग्रह योग से बचने के लिए उन्हें यह उपाय करने चाहिए-

- हरिवंश पुराण का पाठ करें।

- गोपाल सहस्रनाम का पाठ करें।

- पंचम-सप्तम स्थान पर स्थित क्रूर ग्रह का उपचार करें।

- दूध का सेवन करें।

- सृजन के देवता भगवान शिव का प्रतिदिन विधि-विधान से पूजन करें।

- किसी बड़े का अनादर करके उसकी बद्दुआ ना लें।

- पूर्णत: धार्मिक आचरण रखें।

- गरीबों और असहाय लोगों की मदद करें। उन्हें खाना खिलाएं, दान करें।

- किसी अनाथालय में गुप्त दान दें।

संतान चाहिए? ये ज्योतिषीय उपाय करें...

यह मुख्य विषय प्रारब्ध एवं भाग्य संबंधी होता है। किंतु ठीक उपाए कर लिए जाएं तो संतान की प्राप्ती निश्चित होती है।

पहला उपाए- संतान गोपाल मंत्र के सवा लाख जप शुभ मुहूर्त में शुरू करें। साथ ही बालमुकुंद (लड्डूगोपाल जी) भगवान की पूजन करें। उनको माखन-मिश्री का भोग लगाएं। गणपति का स्मरण करके शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करके निम्न मंत्र का जप करें।
मंत्र
ऊं क्लीं देवकी सूत गोविंदो वासुदेव जगतपते देहि मे,
तनयं कृष्ण त्वामहम् शरणंगता: क्लीं ऊं।।

दूसरा उपाए- सपत्नीक कदली (केले) वृक्ष के नीचे बालमुकुंद भगवान की पूजन करें। कदली वृक्ष की पूजन करें, गुड़, चने का भोग लगाएं। 21 गुरुवार करने से संतान की प्राप्ती होती है।

तीसरा उपाए- 1 प्रदोष का व्रत करें, प्रत्येक प्रदोष को भगवान शंकर का रुद्राभिषेक करने से संतान की प्राप्त होती है।

चौथा उपाए- गरीब बालक, बालिकाओं को गोद लें, उन्हें पढ़ाएं, लिखाएं, वस्त्र, कापी, पुस्तक, खाने पीने का खर्चा दो वर्ष तक उठाने से संतान की प्राप्त होती है।

पांचवां उपाए- आम, बील, आंवले, नीम, पीपल के पांच पौधे लगाने से संतान की प्राप्ति होती है।

चार प्रकार के होते हैं पुत्र

भागवत के अनुसार एक राजा हुए, नाम था उनका चित्रकेतु। राजा चित्रकेतु के इकलौते पुत्र की मृत्यु हो जाती है। इकलौते पुत्र की मृत्यु से चित्रकेतु को गहरा आघात पहुंचता है। उस समय देवर्षि नारद चित्रकेतु को वैराग्य का उपदेश देते हैं।
नारदजी ने बताया राजन पुत्र चार प्रकार के होते हैं- शत्रु पुत्र, ऋणानुबंध पुत्र, उदासीन और सेवा पुत्र

शत्रु पुत्र: जो पुत्र माता-पिता को कष्ट देते हैं, कटु वचन बोलते हैं और उन्हें रुलाते हैं, शत्रुओं सा कार्य करते हैं वे शत्रु पुत्र कहलाते हैं।

ऋणानुबंध पुत्र: पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शेष रह गए अपने ऋण आदि को पूर्ण करने के लिए जो पुत्र जन्म लेता है वे ऋणानुबंध पुत्र कहलाते हैं।

उदासीन पुत्र: जो पुत्र माता-पिता से किसी प्रकार के लेन-देन की अपेक्षा न रखते विवाह के बाद उनसे विमुख हो जाए, उनका ध्यान ना रखे, वे उदासीन पुत्र कहलाते हैं।

सेवा पुत्र: जो पुत्र माता-पिता की सेवा करता है, माता-पिता का ध्यान रखते हैं, उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने देते, ऐसे पुत्र सेवा पुत्र अर्थात् धर्म पुत्र कहलाते हैं।

नारदजी कहते हैं कि मनुष्य का वास्तविक संबंध किसी से नहीं होता। इसलिए आत्मचिंतन में रमना ही उसका परम कर्तव्य है।

दीपक बुझाने वाले रहते हैं हमेशा गरीब

हते हैं कि समय के साथ ही इंसान को बदलते रहना चाहिये, तथा पुरानी और अनावश्यक बातों को छोड़ देना चाहिये। किन्तु यहां ऐसा करते समय इंसान को बड़ी सावधानी तथा चौकन्ना रहने की जरूरत होती है।

आंख मीचकर हर नई चीज को गले लगा लेना और पुराना कहकर हर बात को ठुकरा देना, दोनों ही बातों में बराबर का खतरा है। पुरानी परंपराओं या मान्यताओं में हो सकता है कुछ समय के साथ अनावश्यक और बेकार हो गई हों, किन्तु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो सैकड़ों हजारों साल गुजरने के बावजूद आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कारगर हैं।

इन परंपराओं और मान्यताओं के पीछे गहरा विज्ञान छुपा होता है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण परंपरा है कि, व्यक्ति को कभी भी देव स्थान पर जलते हुए दीपक को नहीं बुझाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से इंसान को सदा दरिद्र यानि कि गरीब ही रहना पड़ता है? आइये जाने उन कारणों को:-

- धन की देवी लक्ष्मी और धन के राजा देवता कुबेर दोनों की ही आराधना में दीपक का प्रमुख स्थान होता है। बगैर दीपक के दोनों की ही पूजा- आराधना अधूरी मानी जाती है।

- ज्योतिष मे भी ऐसी मान्यता है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से सारे ग्रह-नक्षत्र इंसान के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। खासकर देवता सूर्य सबसे ज्यादा असर डालते हैं।

राम नीले क्यूँ, कृष्ण काले क्यूँ



अक्सर मन में यह सवाल गूंजता है कि हमारे भगवानों के रंग-रूप इतने अलग क्यों हैं। भगवान कृष्ण का काला रंग तो फिर भी समझ में आता है लेकिन भगवान राम को नील वर्ण भी कहा जाता है। क्या वाकई भगवान राम नीले रंग के थे, किसी इंसान का नीला रंग कैसे हो सकता है? वहीं काले रंग के कृष्ण इतने आकर्षक कैसे थे? इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।


राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।


इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।
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