शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

क्यों चढ़ाते हैं शनि पर तेल?


शनि पर तेल चढ़ाने का धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों महत्व है। शनि न्यायप्रिय ग्रह है और श्रम से प्रसन्न होते हैं। शनि की नाराजी श्रम से दूर की जा सकती है लेकिन उस श्रम के लिए हमारे शरीर में शक्ति, स्वास्थ्य और सामथ्र्य रहे, इसके लिए शनि को तेल चढ़ा कर प्रसन्न किया जाता है। पुराणों में शनि को तेल चढ़ाने के पीछे कई भिन्न-भिन्न कथाएं हैं। मुख्यत: ये सारी कथाएं रामायण काल और विशेष रूप से भगवान हनुमान से जुड़ी हैं। अलग-अलग कथाओं में शनि को तेल चढ़ाने की चर्चा है लेकिन सार सभी का यही है। शनि नीले रंग का क्रूर माना जाने वाला ग्रह है, जिसका स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उसने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीड़ित शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा तथा शनिवार को मुझपर तेल चढ़ाएगा उसका मैं कल्याण करुंगा।धार्मिक महत्व के साथ ही इसका वैज्ञानिक आधार भी है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि शनिवार को तेल लगाने या मालिश करने से सुख प्राप्त होता है। उक्त वाक्य और शनि को तेल चढ़ाने का सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को त्वचा, दांत, कान, हड्डियों और घुटनों में स्थान दिया गया है। उस दिन त्वचा रुखी, दांत, कान कमजोर तथा हड्डियों और घुटनों में विकार उत्पन्न होता है। तेल की मालिश से इन सभी अंगों को आराम मिलता है। अत: शनि को तेल अर्पण का मतलब यही है कि अपने इन उपरोक्त अंगों की तेल मालिश द्वारा रक्षा करो।दांतों पर सरसो का तेल और नमक की मालिश। कानों में सरसो तेल की बूंद डालें। त्वचा, हड्डी, घुटनों पर सरसो के तेल की मालिश करनी चाहिए। शनि का इन सभी अंगों में वास माना गया है, इसलिए तेल चढ़ाने से वे हमारे इन अंगों की रक्षा करते हैं और उनमें शक्ति का संचार भी करते हैं।

क्यों नहीं चढ़ाते शिव को शंख से जल?


शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पातिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशुल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

नवविवाहित दंपती के लिए कक्ष

नवविवाहित के लिए वायव्य कोण में शयन कक्ष का चयन सर्वोत्तम है। संतान के इच्छुक दंपती भी इस क्षेत्र को शयन कक्ष के रूप में चुन सकते हैं

नव दंपती के शयन-कक्ष की आंतरिक सुसज्जा
नव दंपती के शयन कक्ष की आंतरिक सुसज्जा अतिथि कक्ष की आंतरिक व्यवस्था की तरह की जा सकती है। ध्यान रहे कि नव विवाहित दंपती का शयनकक्ष आग्नेय कोण में कदापि नहीं होना चाहिए। अग्नि कोण में शयन कक्ष होने से आपसी संबंधों में तनाव तथा तनातनी रहती है। यहां शयन करने से परस्पर विवाद काफी ज्यादा होता है। सफेद , क्रीम , या पीच रंग का प्रयोग इन कक्षों में उत्तम पाया गया है। कमरे में ताजे फूल रखें। इस कक्ष में फल आदि भी रखें , विशेषकर अनार जो कि स्वयं में प्रजनन का प्रतीक माना गया है।

इस कमरे में दर्पण न लगाएं। यदि इस कमरे में ड्रेसिंग टेबल हो तो विशेष ध्यान दें कि सोते समय आपका प्रतिबिम्ब दर्पण में न आए। यदि ऐसा हो तो शीशे को ढक कर रखें। यदि टॉइलट इस कक्ष के साथ हो तो उसके द्वार को सदैव बंद रखें। पत्नी पति के बाईं ओर सोए। पलंग द्वार के एकदम सम्मुख नहीं होना चाहिए। बिस्तर, बीम के नीचे नहीं हो। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो कम से कम यह ध्यान अवश्य रखें कि बीम बिस्तर की लंबाई की दिशा में हो, न कि चौड़ाई की दिशा में।

वैवाहिक संबंधों में सामंजस्य के लिए बीम के दोष के परिहार हेतु बीम से दो बांसुरियां लटका दें अन्यथा फॉल्स छत डलवाकर बीम को छिपा दें। जिन युवा कपल्स को गर्भधारण में कठिनाई आ रही हो, उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए कि उनका बिस्तर बीम के नीचे न हो। अलमारी , टेबल अथवा कमरे का कोई नुकीला कोना बिस्तर की ओर भेदन न कर रहा हो। संतान इच्छुक कपल्स के लिए सुझाव है कि उत्तर में सिर और दक्षिण में पैर करके न सोएं।

दक्षिण दिशा में सिर करके और उत्तर में पैर करके सोने से अच्छे परिणाम आते हैं। ऐसा पाया गया है कि भवन की उत्तर दिशा अगर बाधित हो, तो पुत्र संतान की प्राप्ति में बाधा आती है। यदि मुख्य द्वार पर्जन्य नामक देवता के स्थान पर हो तो कन्याओं की अधिकता होती है। संतान इच्छुक दंपती गर्भधारण तक वायव्य या उत्तर दिशा के मध्य के शयनकक्ष में निवास करें। गर्भधारण के पश्चात् उन्हें दक्षिण दिशा के शयनकक्ष में स्थानांतरण कर देना चाहिए। प्रसवकाल तक गर्भ की सुरक्षा की दृष्टि से दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण का शयनकक्ष अधिक सुरक्षित है।

जिन दंपती में वैवाहिक मतभेद हो रहे हों, उन्हें चाहिए कि वे अपने डबल-बेड पर इकहरा गद्दा बिछाएं। दो अथवा अधिक गद्दों के टुकड़े बिछाने से पति पत्नी में आपस में कटुता पैदा होती है। अगर दो गद्दे हो, तो इन्हें आपस में सिला भी जा सकता है, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि यह एक ही है। बिस्तर के ऊपर लंबाई में पड़ा हुआ बीम वैवाहिक रिश्तों में तनाव लाता है। बांस की दो बांसुरियां आपस में एक दूसरे को काटती हुई और नीचे कर लटकाने से बीम के दोष का परिहार हो जाता है।

ऐसी वस्तुएं , पेंटिंग , तस्वीरें अथवा फोटोग्राफ जिससे वैवाहिक जीवन के आनंदमय क्षणों की याद आती रहे, उन्हें नैऋत्य कोण में लगाने से आपस में कटुता में कमी आती है। सौहार्दपूर्ण जीवन के लिए सात छड़ी वाली रुपहली घंटी दक्षिण दिशा में खिड़की में लटकाएं। फेंगशुई के अनुसार, हंसों का जोड़ा शयनकक्ष में रखने से आपस में प्रेम और विश्वास में वृद्धि होती है। यह किसी भी प्रकार के जैसे कांच , मिट्टी अथवा सिरैमिक के बने हो सकते हैं। इन्हें शयनकक्ष के नैऋत्य कोण में रखना उत्तम है।

कमरे के भीतर अंधेरा अथवा कम रोशनी नहीं होनी चाहिए। दिन के समय खिड़कियां खोल दें और पर्दे हटा देने चाहिए, जिससे अधिक से अधिक ताजी हवा और प्राकृतिक प्रकाश कक्ष में प्रवेश करता रहे। रात्रि के समय कमरे में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था रखें। रोशनी को कम अथवा अधिक करने के लिए नियंत्रक लगा सकते हैं। कमरे में बेकार का सामान न भरें। इस कमरे को सुंदर और सुरूचिपूर्ण ढंग से सजाएं, जिससे यह आकर्षक और स्वागतमय प्रतीत हो।

नैऋत्य कोण क्षेत्र शक्ति का प्रतीक है, परंतु साथ ही प्यार , भाग्य , रोमैंस और पारिवारिक खुशियों को नियंत्रक भी है। पवन घंटियों को क्रिस्टल के साथ नैऋत्य कोण में लटकाने से आपस में प्यार और विश्चास बढ़ता है। अंतत: इस कक्ष में मंदिर अथवा पूजा स्थल न बनाएं।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

वास्तु: भूमि का चयन और मिट्टी का स्वरूप


वास्तु के प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि निर्माण के लिए भूमि का चयन करते समय मिट्टी के स्वरूप की परख अवश्य की जाए। अन्य पहलुओं के साथ-साथ वह भी महत्वपूर्ण कारक है। वास्तु में मिट्टी को उसके रंग, स्वाद और महक के आधार पर चार श्रेणियों में बांटा गया है- ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य व शूद्र। जो मिट्टी श्वेत, थोड़ी लाल, भीनी-भीनी महक वाली और उपजाऊ होती है वह आवास तथा व्यावसायिक कार्यों के लिए बहुत शुभ होती है। काले वर्ण की दुर्गंधित और तीखे स्वाद वाली मिट्टी को अशुभ माना जाता है।

मिट्टी का विश्लेषण मिट्टी में निहित पंचतत्वों के गुणों के आधार पर किया जाता है। वास्तु संबंधी शास्त्रों में मिट्टी की विशेषताओं की व्याख्या रूप, रस , गंध , रंग , आकार , स्पर्श व ढलान के आधार पर की गई है और उसे ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
मिट्टी की विशेषताओं का रहने वाले लोगों पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार अलग-अलग श्रेणी की मिट्टी विभिन्न वर्ग और श्रेणी के निवासियों के लिए उपयुक्त होती है। उदाहरण के लिए ब्राह्मणी भूमि बुद्धिजीवियों , वैज्ञानिकों व धार्मिक नेताओं के लिए अच्छी मानी जाती है। इसका रंग श्वेत होता है , महक अच्छी होती है और स्वाद मीठा होता है। प्राचीन समय में देखा गया था कि अलग-अलग प्रकार की मिट्टी की जैविक संरचना और विशेषताएं अलग-अलग तरह के लोगों के लिए अनुकूल सिद्ध होती है और प्रभामंडल को और प्रभावी बनाती है।

मिट्टी की विशेषताओं और वहां रहने वाले लोगों के गुणों में परस्पर संबंध होता है। इनके सही मेल से वांछित लाभ अर्जित किया जा सकता है। ध्यान रखें कि यह वर्गीकरण जाति के आधार पर नहीं किया गया है, बल्कि व्यवसाय , कार्य के स्वरूप व मूल प्रवृत्ति के आधार पर किया गया है।

मिट्टी की जांच
प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूचाल , चक्रवात आदि की विनाशक शक्ति को झेलने में कोई भवन कितना सक्षम है , यह इस बात पर निर्भर करता है कि भवन का मूल आधार अर्थात् मिट्टी कितनी उपयुक्त व सुदृढ़ है। हमारे मनीषियों ने भवन की सुदृढ़ता और स्थायित्व के लिए भूखंड की मिट्टी की
गुणवत्ता , शुभता और अनुकूलताएं नींव स्थापना और भूखंड के सही आकार की महत्ता पर बल दिया था।
वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्माण उसी भूमि पर करना चाहिए, जिस भूमि की मिट्टी में घनत्व अधिक हो। आधुनिक समय में भी मिट्टी के अधिक घनत्व वाली भूमि को अच्छा माना जाता है और मिट्टी की सुदृढ़ता व उपयुक्तता की परख करने के लिए जांच की जाती है। यकीनन , हमारे पूर्वजों को भवन निर्माण संबंधी सभी पहलुओं का ज्ञान था। उन्हें न केवल वास्तुकला के सिद्धांतों का ज्ञान था, बल्कि मनुष्य में और उसके चारों ओर व्याप्त सूक्ष्म ब्रह्मांडीय ऊर्जा का भी पता था।
वास्तु में मिट्टी की शक्ति को परखने के लिए उसकी जांच करने की बात कही गई है, क्योंकि मिट्टी को ही भवन का पूरा भार वहन करना पड़ता है और प्राकृतिक शक्तियों और प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। हमारे प्राचीन वास्तु ग्रंथों में मिट्टी के घनत्व की जांच के लिए बहुत साधारण और सरल विधियां बताई गईं हैं।
भूखंड के बीच में एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसमें से निकाली गई मिट्टी से ही भर देना चाहिए। यदि गड्ढे को अच्छी तरह भरने के बाद भी मिट्टी बच जाए तो वह भूमि घर बनाने के लिए उत्तम होती है। यदि उस मिट्टी से गड्ढा भर दिया जाए और मिट्टी न बचे तो भूमि मध्यम होती है और यदि गड्ढा भरने में मिट्टी कम पड़ जाए तो उस भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिए।
मिट्टी को परखने के लिए खाली गड्ढे को शाम के समय पानी से भरकर छोड़ देना चाहिए। सुबह तक यदि इस गड्ढे में कुछ पानी बचे तो वह भूमि मकान बनाने के लिए शुभ होती है। यदि गड्ढे में गीली-गीली मिट्टी हो तो भूमि मध्यम होती है , यदि गड्ढे में पानी न हो और दरारें हो तो उस भूमि पर मकान नहीं बनाना चाहिए।

भूमि जांच का एक अन्य तरीका भूमि पर हल चलाकर भी किया जाता है। हल चलाने से ऊपरी सतह के हट जाने के बाद मिट्टी की सही जानकारी प्राप्त हो जाती है। यदि पशुओं की हड्डियां , बाल आदि मिले तो उस भूमि को निर्माण के लिए अशुभ माना जाता है। भूमि का मुख्य गुण उसका चिकनापन और ठोस होना माना गया है। रेतीली मिट्टी एक स्थिर भवन के निर्माण के लिए सही नहीं समझी जाती। दरारों वाली , चींटियों और दीमकों के बिल वाली , दलदली और ऊंची-नीची भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिए।
अगर ऐसी भूमि पर भवन बनाना जरूरी हो तो उसकी ( 5.5-6 फुट तक) खुदाई कर उसमें अशुभ चीजों का शोधन करके बडे़ गोल पत्थरों और चिकनी मिट्टी से भरकर समतल कर लेना चाहिए। उसके बाद पानी से पूरे भूखंड को संचित कर फिर भवन निर्माण करवाना चाहिए।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

वास्तु से बढाएं पिता-पुत्र में प्रेम



वास्तु अध्ययन व अनुभव यह बताता है कि जिस भवन में वास्तु स्थिति गड़बड होती है, वहाँ व्यक्ति के पारिवारिक व व्यक्तिगत रिश्तों में अक्सर मतभेद, तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। वास्तु में पूर्व ईशानजनित दोषों के कारण पिता-पुत्र के संबंधों में धीरे-धीरे गहरे मतभेद दूरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और साथ ही कई परिवारों को पुत्र हानि का भी सामना करना पड़ता है सूर्य को पुत्र का कारक ग्रह माना जाता है, जब भवन में ईशान व पूर्व वास्तु दोषयुक्त हो तो यह घाव में नमक का कार्य करता है। जिससे पिता-पुत्र जैसे संबंधों में तालमेल का भाव व पुत्र-पिता के प्रति दुर्भावना रखता है। वास्तु के माध्यम से पिता पुत्र के संबंधों को अति मधुर बनाया जा सकता है।

महत्वपूर्ण व उपयोगी तथ्य जो पिता-पुत्र के संबंधों को प्रभावित करते हैं :

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ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूखण्ड कटा हुआ नहीं होना चाहिए।
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भवन का भाग ईशान (उत्तर-पूर्व) में उठा होना अशुभ हैं। अगर यह उठा हुआ है तो पुत्र संबंधों में मधुरता व नजदीकी का आभाव रहेगा।
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उत्तर-पूर्व (ईशान) में रसोई घर या शौचालय का होना भी पुत्र संबंधों को प्रभावित करता है। दोनों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी रहती है।
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दबे हुए ईशान में निर्माण के दौरान अधिक ऊँचाई देना या भारी रखना भी पुत्र और पिता के संबंधों को कलह और परेशानी में डालता रहता है।
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ईशान (उत्तर-पूर्व) में स्टोर रूम, टीले या पर्वतनुमा आकृति के निर्माण से भी पिता-पुत्र के संबंधों में कटुता रहती है तथा दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।
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इलेक्ट्रॉनिक आइटम या ज्वलनशील पदार्थ तथा गर्मी उत्पन्न करने वाले अन्य उपकरणों को ईशान (उत्तर-पूर्व) में रखने से पुत्र, पिता की बातों की अवज्ञा अर्थात्‌ अवहे‌लना करता रहता है, और समाज में बदनामी की स्थिति पर ला देता है।
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इस दिशा में कूड़ेदान बनाने या कूड़ा रखने से भी पुत्र, पिता के प्रति दूषित भावना रखता हैं। यहाँ तक मारपीट की नौबत आ जाती है।
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ईशान कोण खंडित होने से पिता-पुत्र आपसी मामलों को लेकर सदैव लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
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यदि कोई भूखंड उत्तर व दक्षिण में सँकरा तथा पूर्व व पश्चिम में लंबा है तो ऐसे भवन को सूर्यभेदी कहते हैं यहाँ भी पिता-पुत्र के संबंधों में अनबन की स्थिति सदैव रहती है। सेवा तो दूर वह पिता से बात करना तथा उसकी परछाई में भी नहीं आना चाहता है।

इस प्रकार ईशान कोण दोष अर्थात्‌ वास्तुजनित दोषों को सुधार कर पिता-पुत्र के संबंधों में अत्यंत मधुरता लाई जा सकती हैं। सूर्य संपूर्ण विश्व को ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है तथा इसी के सहारे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संचालित होती है तथा पराग कण खिलते हैं जिसके प्रभाव से वनस्पति ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत्‌ प्रभावित होता है। पूर्व व ईशानजनित दोषों से प्राकृतिक तौर पर प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिल पाती और पिता-पुत्र जैसे संबंधों में गहरे तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव वास्तुजनित दोषों को समझते हुए ईशान की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।


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पं. प्रेमकुमार शर्मा

घर में रखें फेंगशुई कछुआ



ड्रेगन मुँह वाला कछुआ सौभाग्य का प्रतीक है। अतः इसे शयनकक्ष में न रखें। इसको बैठक हॉल में रखें। अगर यह पूर्व या उत्तर दिशा में रखा जाए तो बहुत ही बेहतर है।

फेंगुशई से वास्तु दोष निवारण में दूसरा नंबर कछुआ का आता है। ऐसे में आपके घर में अगर कछुआ उपस्थित है तो समझिए कि आपकी बीमारी और शत्रुओं से छुट्टी हो गई है।

हिंदू मंदिर और मूर्ति पूजा


।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।

स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1

भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।

वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति। वैदिक समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़ा रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। इसके अलावा वे यज्ञ के द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे।

शिवलिंग की पूजा का प्रचनल पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिंदू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण राम और कृष्ण की मूर्तियाँ बनाई जाने लगी।

न तस्‍य प्रति‍मा :
अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यन्‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है।- यजुर्वेद

केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं हैं, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं-जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ 'ईश्वर' नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और साँस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही 'निराकार सत्य' को मानते हैं। यही सनातन सत्य है।

स्‍पष्‍ट है कि‍ वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है। कि‍सी मूर्ति‍ में ईश्‍वर के बसने या ईश्‍वर का प्रत्‍यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्‍मत नहीं है। जो वेदसम्मत नहीं वह धर्मविरुद्ध है।

मंदिर का अर्थ :
मंदिर का अर्थ होता हैं मन से दूर कोई स्थान। मंदिर को हम द्वार भी कहते हैं। जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं ‍जैसे ‍की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं।

द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और ‍मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।

परिभाषा : मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहाँ देवताओं की पूजा होती है उसे 'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहाँ पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहाँ प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।

वास्तु रचना :
प्राचीन काल से ही किसी भी धर्म के लोग सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं, जहाँ पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए। इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर डाले तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशील्प बहुत सुदृड़ था। जहाँ जाकर आज भी शांति मिलती है।

यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार की ही सोची है।

ऋषि-मुनियों की कुटिया भी उसी आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थी। बाद में रोमन, चीन, अरब और युनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु में परिवर्तन होता रहा।

मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या नैरत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या फिर समाधि-स्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई पूजा-स्थल।

मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के पीछे कारण यह कि ईशान से आने वाली उर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए अति उत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर पूर्वमुखी भी हो सकता हैं किंतु फिर उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियाँ आवेष्टित की जाती थी। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएँगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खतम हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बड़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।

मंदिर को बनाओ प्रार्थना का स्थान : जानकार कहते हैं कि उसी मंदिर का महत्व है जिसमें सामूहिक रूप से दो संधिकाल (प्रात: और संध्या) में ठीक और एक ही वक्त पर ध्यान या प्रार्थना की जाती है। मंदिरों में यदि मूर्तियों की पूजा होती है तो कोई बात नहीं, लेकिन एक हाल भी होना चाहिए जहाँ पाँच सौ से हजार लोग खड़े रहकर प्रार्थना कर सके। परमेश्वर की प्रार्थना के लिए वेदों में कुछ ऋचाएँ दी गई है, प्रार्थना के लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए।। ॐ।।


- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

प्लाट खरीदते वक्त वास्तु का रखें ध्यान

वास्तु में दिशा, प्लाट के आकार, प्रकार आदि से जुड़ी कुछ मूलभूत बाते हैं, जो प्लाट खरीदते वक्त आपके लिए उपयोगी हो सकती है। वास्तु के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर यदि किसी जमीन का क्रय किया जाए तो वह आपके निवास या व्यवसाय के लिए उपयोगी व लाभदायक सिद्ध होगी।

आइये जानें वास्तु के ऐसे ही कुछ सिद्धांतों के बारे में -


* हमेशा बड़ा व चौड़ा प्लाट खरीदें क्योंकि सँकरा व लंबा प्लाट आपके लिए भविष्य में परेशानी का कारण बन सकता है।

* तिकोना प्लाट भवन निर्माण के लिए अनुपयुक्त माना जाता है।

* प्लाट की लंबाई उत्तर- दक्षिण दिशा की बजाय पूर्व-पश्चिम दिशा में अधिक होना शुभ माना जाता है।

* प्लाट या बिल्डिंग में भारी सामान दक्षिण-पश्चिम दिशा के कोने में रखा जाना चाहिए।

* बड़ा प्लाट समद्धि का सूचक होता है बशर्ते उसमें सीवरेज या क्रेक नहीं होना चाहिए।

* बिल्डिंग या फैक्ट्री का निर्माण करते समय दक्षिण या उत्तर दिशा की ओर अधिक खाली स्थान छोड़ना अच्छा नहीं माना जाता है।

* प्लाट का आकार आयताकार या चौकोर होना वास्तु में अच्छा माना जाता है।
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