सोमवार, 23 नवंबर 2009

लग्न कैसे निकालें - पं. विनोद राजाभाऊ

जन्म कुंडली में सर्वाधिक महत्व लग्न का है। जब भी कोई व्यक्ति ज्योतिष या किसी जातक की चर्चा करेगा तो पहले लग्न क्या है, पूछा जाएगा। लग्न से व्यक्ति की संपूर्ण शारीरिक संरचना का ज्ञान होता है। अत: लग्न की गणना करते समय बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। पूर्व दिशा में उदित होने वाली राशि को लग्न कहते हैं अर्थात जब जातक का जन्म हुआ उस समय में पूर्व दिशा में जो राशि होती है उसे ही लग्न कहेंगे।
जन्म समय को स्थानीय समय में परिवर्तन कर उसे घटी-पल में परिवर्तन कर इष्टकाल बनाने के पश्चात हम लग्न निकाल सकते हैं। पंचांग में प्रात: सूर्य स्पष्ट (प्रा.सू.स्प) दिया रहता है। जिस दिनांक का जन्म हो, उस दिनांक का प्रात: सूर्य स्पष्ट पंचांग में देख लें। गत अंक में इष्ट दिनांक 01.01.२क्क्८ का (उज्जैन) प्रात: सूर्य स्पष्ट 8:16:2:44 (राशि: अंश: कला: विकला) है। यहां हम केवल 8 राशि एवं 16 कला को ही लेंगे तथा पंचांग में 8 राशि एवं 16 कला का मान देखेंगे जो कि लग्न सारिणी में दिया गया है।
8-16 का मान 48:39:12 आया इसमें इष्टकाल को जोड़ दिया 48:39:१२ + इष्टकाल 4:५८:क्क् (गत अंक से) = 53:३७:१२ आया। यदि जोड़ 60 से अधिक हो तो 60 से कम कर लें। इसे पुन: लग्न सारिणी में देखा तो इसके निकटतम अंक मिले 53:३६:३६ जिसके बायीं ओर देखने में मकर राशि तथा ऊपर अंश के कॉलम में देखने पर 17 मिले। अत: लग्न स्पष्ट हुआ 9:१७:५३:३६ मकर राशि १७ अंश ५३ कला एवं 36 विकला। यहां जिज्ञासुओं को ध्यान देने योग्य बात यह है कि पंचांग में किसी भी ग्रह की स्थिति का उल्लेख रहता है।
उसे ऐसे समझेंगे जैसे दिनांक 01.01.क्८ को सूर्य ८:१६:२:४४ था अर्थात सूर्य वृश्चिक राशि को क्रॉस कर 16 अंश एवं 2 कला एवं 44 विकला पर था। तो इसे लिखने या बोलने में धनु में सूर्य कहेंगे क्योंकि आठवीं राशि वृश्चिक है तथा नवमीं राशि धनु है। यहां सूर्य आठवीं राशि क्रॉस (पूर्ण) कर नवमीं राशि में भ्रमण कर रहा है। उपरोक्त लग्न स्पष्ट होने के पश्चात अब हम लग्न कुंडली बना सकते हैं। कुंडली में 12 खाने (कॉलम) होते हैं। यह हम खींच लें। ऊपर के मध्य कॉलम को लग्न से संबोधित करते हैं।
इस कॉलम में हम 10 अंक लिखेंगे, यह 10वीं राशि मकर को इंगित करती है। चूंकि गणना में लग्न मकर आया। जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है - लग्न 9:१७:५३:३६ अर्थात नवीं राशि धनु को क्रॉस कर 10वीं राशि मकर में लग्न चल रहा है। अब हम कुंडली बनाकर लग्न स्थान में 10वीं राशि लिखकर आगे बायीं तरफ बढ़ते क्रम में लिखते जाएंगे। जैसे 11, 12, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9। बारह के पश्चात पुन: एक से आरंभ करेंगे क्योंकि कुल राशि बारह ही होती है।

उम्र जानें.. अपने लाड़ले की - डॉ. अनुराग

आयुर्वेद आयु संबंधी विज्ञान है। नवजात शिशु की आयु जानने के लिए महर्षि अग्निवेश ने शिशु के शारीरिक अंगों की परीक्षा का विधान बतलाया है, जिससे उनकी आयु का आकलन किया जा सकता है।
केश : प्रत्येक रोमकूप में से एक-एक केश निकला हो, बाल मुलायम, अल्प, चिकने व मजबूत जड़ वाले हों। ऐसे बाल शुभ होते हैं।
त्वचा : अपने-अपने अवयवों के ऊपर अच्छी तरह से स्थिर त्वचा अच्छी मानी गई है। सिर : अपनी स्वाभाविक आकृति वाला सिर, शरीर के अनुपात में, छाते के समान बीच में कुछ ऊंचा सिर श्रेष्ठ होता है।
ललाट : चौड़ा, मजबूत, समतल, शंख प्रदेश की संधियां परस्पर मिली हों, ऊपर की ओर रेखाएं उभारयुक्त हों, ललाट मांसल हों। अभिप्राय यह है कि उस पर केवल त्वचा का ही आवरण न हो। माथे पर वलियां दिखाई दें। अर्धचंद्र की आकृति वाला ललाट शुभ होता है।
कान : दोनों कान मांसल हों, बड़े, पीछे की ओर समतल भाग वाले और बाहरी भाग मजबूत हो, कर्ण गुह्य के छिद्र मजबूत हों, ऐसे कान शुभ होते हैं।
भौंहें : दोनों भौंहें थोड़ा-सा नीचे की ओर लटकी हों, नाक के ऊपरी भाग के पास भौंहें मिली न हों, दोनों समान व दूर तक फैली हुई हांे। ऐसी लंबे आकार वाली भौंहें शुभ होती हैं।
आंखें : दोनों आंखों का आकार समान हो अर्थात एक आंख बड़ी और एक छोटी न हो। दृष्टि मंडल, कृष्ण मंडल तथा श्वेत मंडल का विभाजन ठीक ढंग से हुआ हो, आंखें बलवती और तेजोमय हों। ऐसी आंखें शुभ लक्षणों से युक्त मानी गई हैं।
नासिका : सीधी, लंबी, सांस लेने में समर्थ और नासिका का अगला कुछ भाग झुका हुआ हो तो ऐसी नासिका शुभ होती है।
मुख : मुख का आकार बड़ा तथा शरीर के अनुपात में होना चाहिए। सीधा व जिसके भीतर दंतपंक्ति व्यवस्थित हो, ऐसा मुख शुभ होता है। हालांकि इस समय दंत उत्पत्ति नहीं हुई होती, लेकिन शिशु के मसूढ़ों को देखकर दांतों की परीक्षा की जा सकती है।
जीभ : चिकनी अर्थात जिसमें खुरदरापन न हो, पतली, अपनी आकृति तथा अपने वर्ण से युक्त जीभ शुभ होती है।
तालु : चिकना, मांस से समुचित रूप से भरा हुआ और स्वाभाविक गरमी से युक्त लाल वर्ण का तालु शुभ होता है।
स्वर : दीनतारहित, चिकना, स्पष्ट और गंभीर स्वर शुभ होता है।
होंठ : दोनों होंठ न अधिक मोटे हों, न अधिक पतले हों, मुंह को भलीभांति ढंकने में समर्थ हों तथा लालिमा से युक्त हों।
हनु : ठोढ़ी को हनु भी कहा जाता है। ठोढ़ी की दोनों हड्डियों का समान रूप से बड़ा होना शुभ होता है।
गर्दन : गर्दन का गोलाकार होना और अधिक लंबी न होना शुभ होता है।
उर : चौड़ी और मांसपेशियों से ढंकी छाती शुभ है।
कॉलर बोन तथा रीढ़ : इन दोनों का मांसपेशियों से ढंका रहना शुभ लक्षण माना गया है।
स्तन : दोनों स्तनों के बीच पर्याप्त दूरी का होना शुभ माना गया है।
पाश्र्व : दोनों पाश्र्व भाग मांसल, पतले व स्थिर हों तो शुभ माने जाते हैं।
बाहु, टांगें और उंगलियां : दोनों भुजाएं, पैर और उंगलियां गोलाकार और अपने अनुपात से लंबी हों तो शुभ होती हैं।
हाथ-पैर : जिसके हाथ-पैर लंबे हों और मांस से भरे-पूरे हों, पादतल और करतल मांसल हो, ऐसे हाथ-पैरों को शुभ माना गया है।
नख : स्थिर, ठोस, आकार में गोल, चिकने, तांबे के समान लालवर्ण वाले, बीच में उठे हुए और कछुए की पीठ की हड्डी के समान नाखून शुभ माने गए हैं।
नाभि : दाहिनी ओर घुमाव वाली, बीच में गहरी व चारों ओर से उठे किनारों वाली नाभि को परम शुभ माना गया है।
कटि : कमर छाती की चौड़ाई से तीन हिस्सा पतली, समतल, समुचित रूप से मांसपेशियों से ढंकी हुई अर्थात जो आवश्यकता से अधिक मोटी न हो, वह शुभ होती है।
कूल्हे : दोनों कूल्हे सामान्य रूप से गोलाकार होने चाहिए, मांस से परिपुष्ट होने चाहिए, अधिक उठे हुए और अधिक धंसे हुए नहीं होने चाहिए।
जंघा : दोनों जांघें हरिणी के पैर जैसी, जो न अधिक मोटी हों और न अधिक पतली अर्थात मांसहीन हों, ऐसी जांघें शुभ मानी गई हैं।

देवालय के आसपास नहीं हो घर - श्रीकृष्ण जुगनू

अपना घर न तो किसी प्राचीन देवालय के सामने बनवाएं, न ही घर के सामने कोई देवालय बनवाएं। यह भयंकर दोषकारी है। वास्तुशास्त्र में इसे वेध कहा गया है जिसे हर हाल में टालना चाहिए। यदि जिद के साथ ऐसा निर्माण किया जाता है तो संतान को पीड़ा, नेत्र बाधा, अपस्मार, अंग विकृति जैसी परेशानियां हो सकती हैं।
घर सुख-साधना का केंद्र है। इहलोक और परलोक की सिद्धि में घर बड़ी मदद करता है। भविष्यपुराण में कहा गया है कि अपने घर में किए गए हवन, यज्ञ-अनुष्ठानों का फल निश्चित ही गृहपति को मिलता है। ऐसे में घर का निरापद होना जरूरी है।
इसके लिए सर्वप्रथम उसे देव-वेध से बचाना चाहिए। वेधवास्तु प्रभाकर, निर्दोष वास्तु और वास्तु उद्धारधोरणी जैसे ग्रंथों में जिन उन्नीस प्रकार के वेधों का उल्लेख है, देव-वेध उनमें प्रमुख है। मत्स्यपुराण में भी वेध को हर हाल में टालकर वास्तु निर्माण का निर्देश है।
जो लोग पुराने देवालय के सामने घर या व्यापारिक प्रतिष्ठान बनवाते हैं, वे धन तो पाते हैं किंतु शारीरिक आपदाओं से घिर जाते हैं। यदि शिवालय के सामने घर बना हो तो मृत्यु तुल्य पीड़ा होती है। जिनालय के सामने बना हो तो घर शून्य रहेगा या वैभव से वैराग्य हो जाएगा।
भैरव, कार्तिकेय, बलदेव और देवी मंदिर के सामने घर बनाया गया तो क्रोध और कलह की आशंका रहेगी जबकि विष्णु मंदिर के सामने घर बनाने पर घर-परिवार को अज्ञात बीमारियां घेरे रहती हैं। इसी तरह मंदिर की जमीन या अन्य किसी हिस्से पर कब्जा नहीं करना चाहिए। मंदिर के किसी टूटे पत्थर को भी चिनाई के कार्य में नहीं लेना चाहिए।
यह भी कहा गया है कि देवालय वेध से वंश नहीं बढ़ता है। व्यक्ति तनाव और अवसाद का शिकार हो जाता है। उसे पक्षाघात, अंग विकृति, नेत्र ज्योति में बाधा भी हो सकती है। इसका कोई कारगर उपाय भी नहीं है, लेकिन द्वार बदलकर थोड़ी राहत पाई जा सकती है किंतु यह परिवर्तन बहुत सावधानी से होना चाहिए। प्राचीन काल में ऐसा दोष होने पर मंदिर की दूरी के बराबर बड़ा द्वार या पोल बनाकर नई बस्ती को बसाया जाता था।
पानी पर आवास नहीं हो :
भविष्यपुराण में जिक्र है कि जल के स्थान पर कभी आवास नहीं होना चाहिए। हां, विहार स्थल हो सकता है किंतु जल-पुलिया पर आवास नहीं होना चाहिए। देवालय नीचे हो और अपना आवास उससे ऊंचा हो, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। किसी देवता का मुख अपने घर की ओर भी नहीं होना चाहिए। यदि घर में भी ऐसा हो तो पूजा के बाद पर्दा ढंक दिया जाना चाहिए।

ग्रहों के हाल से जानिए कब्ज का उपचार - पं. पुष्कर राज

कब्ज पेट के रोगों में सबसे आम बीमारी है। पेट का साफ न होना, खुलकर शौच न होना ही कब्ज है। रोग के आरंभ में अपच, आलस्य, सिरदर्द, acidityउल्टी आदि लक्षण प्रकट होते हैं। पानी ज्यादा पीकर व खान-पान में परहेज रखकर इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है।
ज्योतिषीय कारण: जातक ग्रंथों के अनुसार शरीर में अवरोध का कारक ग्रह शनि है। कन्या और तुला राशि पेट से संबंधित कारक राशियों में गिनी जाती है। छठा भाव भी पेट से ही संबंध रखता है। यदि शनि कर्क, कन्या राशि में या छठे भाव में हो तो निश्चित ही कब्ज करने वाला सिद्ध होगा। कन्या या तुला राशि में अशुभ ग्रह हों तो मलावरोध की शिकायत रहेगी। कन्या या तुला राशि में अशुभ ग्रह हों और षष्ठेश से शनि की युति या दृष्टिगत संबंध हो तो भी जातक कब्ज से पीड़ित होगा। शनि अष्टम भाव में दीर्घायु बनाता है, परंतु पेट के रोग का कारक भी सिद्ध होता है।
उपचार : कब्ज की शिकायत वालों को शनि से संबंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए। इनमें तिलदान, तेलदान, उड़द की बनी वस्तुएं, काला वस्त्र, छाता, जूते व सिक्के प्रमुख हैं। शनिवार का व्रत और रोजाना ऊं शं शनैश्चराय नम: मंत्र की एक माला संध्याकाल में या रात में आसन पर बैठकर दीपक लगाकर करें। इससे रोग निदान के स्तर तक पहुंचा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त सुबह शनि के स्मरण के साथ खाली पेट एक लोटा पानी पीने और खाली पेट ही प्राणायाम करने से भी कब्ज से निजात पाया जा सकता है।
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