
वास्तु की मान्यताओं के विकास काल में प्राय: हाथी, घोड़ों और उनसे चलने वाले रथ, पालकी आदि वाहनों पर ही विचार किया गया किंतु वे ही मान्यताएं वर्तमान वाहनों के संदर्भ में भी सर्वथा प्रासंगिक है। वाहन दरअसल मानवीय जीवन की अहम आवश्यकता है और सहायक भी कम नहीं हैं। यदि किसी के पास वाहन नहीं हो और वह वाहन की अपेक्षा करता हो तो उसे वेदोक्त ‘पवमान सूक्त’ का संपुट सहित पाठ करना चाहिए। यह पाठ परिवार में शांति व सुख का संचार भी करता है और वाहन जन्य आकस्मिक हादसों से बचाने वाला भी है।
भवन में सामान्यत: वायव्यकोण में वाहनों को रखना चाहिए। आजकल प्राय: भवन निर्माण के समय वाहन के लिए किसी भी एक दिशा में लम्बवत गलियारा छोड़ दिया जाता है और उसके साथ ही दरवाजा भी रख दिया जाता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि गृहपति के आने-जाने के दरवाजे के अतिरिक्त वाहन के लिए अलग द्वार होना चाहिए। वास्तु विन्यास की परंपरा में ऐसा आवश्यक है। इसके लिए भवन के सामने के भाग की जो लम्बाई या चौड़ाई हो, उसको नौ भागों में बांट दें और प्राय: दोनों ओर से दो-दो खंडों को छोड़कर वाहन के लिए द्वार रखना चाहिए।
भवन में वायव्य कोण से लेकर नैऋत्य कोण की ओर की दीवार पर नौ-नौ भागों के अनुसार पहले दो और आखिरी दो खंड छोड़कर दरवाजा रखना बहुत शुभ माना जाता है। भवन का निर्माण कुछ इस तरह से किया जाना चाहिए कि वाहन एकदम उत्तरी दीवार के पास नहीं खड़ा रहे बल्कि उससे दो खंड की दूरी बनी रहे। वायव्यकोण के निकट, दीवार से आगे दो खंड छोड़कर दरवाजा रखने से परिवार में शोक और दु:ख की आशंका नहीं के बराबर रहती है जैसा कि वास्तुप्रदीप का मत है। ऐसे में तीसरे, चौथे खंड पर वाहन के लिए दरवाजा होना बहुत शुभ है। ऐसा होने पर वाहन संचालन में भी उचित समय पर उचित निर्णय होता है और भ्रम या चूक की संभावना नहीं के बराबर रहती है। यहां यह भी नियम है कि कभी वायव्य कोण से लगता हुआ कोई रेंप घर की सीमा से बाहर नहीं बनाए। हां, भवन के भीतर बनाया जा सकता है। बाहर बने रेंप से मतिभ्रम, व्यर्थ विवाद ऐसी स्थितियां देखने में आई हैं।

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